________________
(१६६)
श्री जैन नाटकीय रामायण
-
-
लक्ष्मण-बिना दिये पर वस्तू लेना, नाम इसी का चोरी है । ब्यभिचार है पाप चतुर्था नर जीवन की डोरी है।
गुरु--भरत अगाड़ी तुम बोलो।
भरत-इच्छित. वस्तु खूब बढ़ाना, परिग्रह कहलाता है। इन पापों का सेवन वाला, नर नरकों में जाता है।
गुरु-शत्रुधन तुम चारों कषायों के नाम बोलो ।
शत्रुधन-क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं। इनके वश होकर जीव अनेक दुःख पाता है ।
गुरु--रामचन्द्र, तुम बताओ कि शिकार खेलना चाहिये या नहीं ?
रामचन्द्र-गुरुजी ! शिकार इस लिये नहीं खेलना चाहिये कि इससे बेचारे अनाथ असहाय और दीन पशुओं का बध होता है। ।
गुरु-युद्ध करना चाहिये या नहीं ? बताओ लक्ष्मण !
लक्ष्मण-यदि अपने देश अपने धर्म, अपनी जाति और अपने बन्धुओं पर कोई आपत्ति पा रही हो तो उससे बचने के ' लिये युद्ध अवश्य करना चाहिये।
गुरु-किन्तु उसमें लाखों मनुष्यों का वध होता है। लक्षमण-मैंने माना कि उसमें बध होता है और वो