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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
केकई जो श्राज्ञा ( चली जाती है।
२ रा राजा-अरे दशरथ ! तू क्या घमंड करता है। ये . तेरा यौवन मैं क्षणभर में मिटा दूंगा। तुझे पृथ्वी पर सुला दूंगा।
दशरथ-तुम नीच हो जो ऐसा कार्य करते हो तुम्हें अभी हारकर भागना पड़ेगा । वीरों की यह नीती नहीं होती कि पर स्त्री को हरने के लिये वह उद्यम करें । यदि केकई को लेना था तो स्ववम्बर न होने देते । महाराज शुभमती से पहले ही उसे क्यों न मांगली ?
२ राजा-परस्त्री नहीं वह अभी क्वारी है। मैं उसे अवश्य ही हर कर ले जाउंगा। ___दशरथ-~-मालूम होता है कि आप किसी पाठशाला में नहीं पढ़ हैं । घाड़ों की घुड़साल में बंधे हैं । आपको यह भी मालूम नहीं कि कन्या जिस समय बर के गले में बर माला डाल देती है वह उसी समय से परस्त्री कहलाने लगती है।
. २ राजा-मालूम होता है तेरी मृत्यु निकट है जो तू ऐसे अपमान के बचन बोलता है।
दशरथ-कहने से क्या होता है यह तो अभी मालुम हो जायगा। (केकई रथ लाती है। वह रथ में अगाडी बैठी है।
घोड़ों की रस्सी सम्हाल रखी है)