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भी जैन नाटकीय रामायण ।।
सा--तो चलिये दिखाइये । मेरा चित्त देखने के लिये उमंगें ले रहा है। [ दोनों जाते हैं पर्दा खुलता है एक पलंग पर अन्जना सो रही है। पास में ही पृथ्वी पर बसंततिलेका सो रही है। अन्जना करवटें बदल रही है। हाथ, पनिदेव, कर रही है प्रहस्त अन्दर आता है। अन्जना उठ कर बैठती है
बसन्त तिलका को जगाती है ] अंजना-बसंततिलका, बसंततिलका, उठ जाग, देख रात्री के समय में यह कौन पर पुरुष मेरे घर में घुस आया । [बसन्ततिलका जागती है। आंखे मलती हैं।
प्रहस्त हाथ जोडता है] प्र०-हे सती मैं तुम्हारे पति का मित्र प्रहस्त हूं। तुम डरो मत । मैं तुम्हारे पति के आने की सूचना लाया हूं। ___अंजना-मैं महा पुण्यहीन हूं। पती के सुख से कोसों दूर हूं। मेरे ऐसे ही पाप कर्म का उदय है। तुम क्यों मेरी हसी करते हो । सच है जिसको पती ने ही बिसार दिया उसकी कौन हँसी न करेगा । मैं अभागिनी परम दुखी हूं। मेरे लिये इस सन्सार में सुख कहां?
. प्र०-हे सती रत्न, अब तुम्हारे अशुभ कर्म के उदय गये तुम्हारे प्रेम का प्रेरा हुआ तुम्हाग प्राणनाथ तुमसे मिलने के लिये पाया।