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१९५०)
श्री जैन नाटकीय रामायण
हनुमान-मैंने श्रापकी कृपा से अब तक केवल ६६ विद्यायें साधी हैं।
रावण-मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूं। तुम्हें मैं अपनी बहन की पुत्री को सगाई करता हूं। और कुण्डलपुर का राज्य देता है !
हनूमान--श्राप मेरे लिये इतना सन्मान दे रहे हैं ! मैं अपना सौभाग्य मानता हूं।
ड्राप गिरता है
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द्वितिय भाग समात
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