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प्रथम भाग ।
अक तृतिय -- दृश्य तीसरा
( साधू और ब्रह्मचारी दोनों आते हैं । )
वृ० – कहिये साधुजी कुछ देखा ?
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खा०-- तुम लोग महा झूठे हो ।
( ६७ )
वृ० वा कैसे ?
सा० - तुमने रावण की एक दम इतनी तारीफ कर डाली । उसे तुम जैनी बताते हो | जैनी होकर भी कोई रावण के जैसे दुष्कर्म कर सकता है ?
वृ० साधु महाराज यह आपका कहना सत्य है कि जैनी होकर दुष्कर्म नहीं कर सकता । किन्तु पांचो अंगुलियों का नाम अंगुलियां ही है । एक ही हाथ के आश्रय हैं । किन्तु कोई छोटी है कोई बड़ी है । उसी प्रकार जिन धर्मके अनुयाई पुरुष भी बहुत से, इन्द्रियों के वशीभूत होकर बुरे काम भी करते हैं और बहुत से अच्छे काम भी करते हैं । जिन धर्म का काम मनुष्य को रास्ता बताने का है उस पर चलाने का नहीं है । यह मनुष्य को स्वयं अधिकार है कि वह चले या न चले ।
साधू – लेकिन तुमने उसकी इतनी तारीफ क्यों की ? वृ० --- सर्वज्ञ भगवान वातरागी होते हैं । वह निःप्रयोजन होते हैं ! उनमें यह बात नहीं होती कि द्वेष वश किसी मनुष्य की बुराई ही बुराई करें । या प्रेम वश किसी की प्रशंसा ही