________________
प्रथम भाग।
(५९)
-
-
समझा । आपने मुझे प्राण दान दिया उसके लिये मैं कहां तक आपकी स्तुति कर सकता हूं।
बाली-यदि तुम इस घोर अपराध का प्रायश्चित लेना चाहते हो तो भगवान की भक्ती में मन लगाओ जिससे यह जीव उनके पदको प्राप्त करता है।
रावण-धन्य है भापको, भापके लिये शत्र और मित्र एक समान हैं। धन्य धन्य गुरु देव आपको, करते हो सबका कल्याण । वीतरागता है दृढ तुमको, शत्रु मित्र सब एक समान ।। अनहित करता के हित करता, शत्रू के हो मित्र तुम्हीं। परिपह विजयी, हित उपदेशी, शान्ति के हो चित्र 'तुम्ही ॥ निज पर के हित साधन में तुम, निश दिन तत्पर रहते हो। ऐसे ज्ञानी साधु तुम्ही हो, दुख समूह को हरते हो ।
आया गुरु शरण मैं तेरी, अपराधी अन्यायी हूँ। दूर होंय सब दुष्कृत मेरे, तुम पर्वत मैं राई हूँ ॥
धरणेन्द्र--(प्रगट होकर ) रात्रण, मैं भगवान का भक्त हूं। और इन श्री १०८ मुनिराज़ बाली महाराज का शिष्य हूँ।
मैं तेरी भक्ती से प्रसन्न हूँ | तुझे भाई समझकर यह.अमोघ विजया . नामक शक्ती देता हूं। यह संकट में तेरे कम आयेगी । इसका वार