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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
· १ स्त्री-(पास में जाकर ) हे युवकों ! ये अवस्था तुम्हारे लिये तप करने की नहीं है। उठो! अभी कुछ नहीं 'बिगडा है, तुम लोग अपने घर जानो।।
२स्त्री -क्यों तुम लोग अपने इन" कोमन शरीरों को कष्ट दे रहे हो, बोलो!
१ स्त्री-अरे, यह तो बिल्कुल पत्थर की शिलाके समान भचल हैं।
स्त्री-क्या किसी कारीगरने लेकंडी के खिलौने बना कर तो नहीं रख दिये जिससे स्त्रियां भायें और इन्हों पर मुग्ध हों।
देव-नहीं ये रत्नश्रवा के तीनों पुत्री हैं । यहां पर विद्या साधने के लिये आये हुवे हैं । ये मूर्ख हैं । इनकी बालक बुद्धि है। मैं अभी 'अपने सेवकों को बुलाकर । इन्हों का ध्यान डिगाता हूँ। (ताली बजाता है, कुछ देव आकर उपस्थित होते हैं।) - देखो जिस प्रकार भी बने तुम इन्हों का ध्यान डिगाओ।
रासस जो भाज्ञा महाराज । (देव अपनी दोनों स्त्रियों सहित एक ओर खड़ा होजाता है। बह तीनों निश्चल बैठे हैं। देव लोग नाना प्रकार की क्रीडा करते हैं। उनके कानों में बहुत भयावने
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