Book Title: Jain Natakiya Ramayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 8
________________ (१४) श्री जैन नाटकीय रामायण । - - रावण-माता, यह मालूम होता है अभिमान से , चूर्ण हो ___ केकसी-हां पुत्र यह बहुत पराक्रमी, है । सब विद्यायें इसको सिद्ध हैं यह सब पृथ्वी. पर श्रेष्ठ है। राजा इन्द्र का लोक पाल है । इन्द्र ने तुम्हारे दादा के बड़े भाई का युद्ध में हरा कर उन्हें कुल परम्परा से चली आई राजबानी - लंका से निकाला और इसको वहां रक्खा है ! इसी लका के लिये तुम्हारे पिता अनेक उपाय करते हैं किन्तु वह प्राप्त नहीं कर सके । हम लोग अपने स्थान से भृष्ट हैं और अनेक प्रकार का चिनायें सहते हुये इधर उधर फिरते हैं । पुत्र हमें बह दिन देखने की अभिलाषा है जब तुम अपने दोनों भाइयों सहित अपना · यश जग में फैला कर वैश्रवण को और अभिमानी राजा इन्द्र को हरा कर ; लंकापुरी में फिर से खुख पूर्वक, राज्य करोगे'। अपने बैंडों की सम्पत्ति - 'को प्राप्त करोगे। विभीषण-माता आप इतने दुख भरे बचन क्यों बोलती हो आफ्ने वीर पुत्रोंको जन्म दिया है । हमारे बड़े भाई साहब रावण का पर क्रम कुछ कम नहीं है । इनकी एक ही फटकार से वह लंका को छोड़ कर भाग जायगा । रावण-है माता मैं गर्वके बचन नहीं बोलता, किंतु तो भी इतना अवश्य करूँगा कि पृथ्वी पर के सारे विद्याघर भी आदि

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