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प्रथम भाग।
(५५)
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बाली-नहीं, इसे मत मारो । इसमें इसका कोई अपराध नहीं है। जिसका अपराध है, जिसके बूते पर यह बोल' रहा है, मैं उसे ही जाकर मजा चखाता हूं।
मंत्री-महाराज शान्त होइये । रावण की समानता 'आप नहीं कर सकते । वह इस समय बहुत बलवान है। सारे पृथ्वी मण्डल पर श्रेष्ठ है । श्राप उससे युद्ध करके पराजय को प्राप्त होंगे।
बाली-मंत्री तुम यह क्या शब्द कह रहे हो । मनुष्य एक वस्तु को तभी तक सबसे सुन्दर गिनता है जब तक वह उससे सुन्दर वस्तु नहीं देख लेता । मेरा बल पर।क्रम तुम्हें ज्ञात नहीं है। ( तलवार खींचकर) मैं भी उसका सारा अभिमान चूर करुंगा । (तलवार छूटकर गिरती है) यह क्या, मेरे हाथ में से खड़ग क्यों छूट पड़ा ? वस वस हो चुका, मैंने जितना राज्य करना था कर लिया। मेरे हाथ इस बात के लिये राजी नहीं होते कि जिनसे में नित्य.प्रती मन्दिर में जाकर पूजन प्रक्षाल करता हूँ। उनसे लाखों जीवों की हत्या करूं। इस कारण मैं साब राज्य कार्य के योग्य नहीं ।
सुग्रीव-भाई साहब आपके विचारं एक दम कैसे बदल गये ? रणवीर होकर आप धर्मवीर क्यों बने जारहे हैं ? आपके बिना इस राज्य भार को कौन सम्हारेगा ।
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