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श्री जैन नाटकीय रामायण ।
बाली -- भाई सुग्रीव, मै तुम्हें राज्यतिलक करता हूँ । तुम जैसा उचित समझो वैसा करना । चाहे युद्ध करना, चाहे जाकर उसको प्रणाम करना । मैं ऐसे संसार में जिसमें एक मनुष्य दूसरे का विरोधी है, रहना नहीं चाहता । मैं भी पिताजी की तरह
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दिगम्बरी दीक्षा धारण करूँगा ।
सुग्रीव - नहीं भाई साहब, यह नहीं हो सकता | आपके. आसरे पर मुझे पिताजी ने छोड़ा अब भापभी मुझे मकेला छोड़ कर जारहे हैं । पिताजी तो वृद्ध होगये थे इस लिये वह बन में
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गये श्राप तो अभी युवक ही हैं ।
बाली सुग्रीव तुम चिन्ता न करो । मुझे इस सत्कार्यं में जाने से न रोको मुझे संसार भयावना दिख रहा है । जो मैं तुम्हें राज्यतिलक करता हूं । सुख पूर्वक राज्य करना । ( राज्य तिलक करते हैं . )
सुग्रीव -- आप मुझे अकेला छोड़ कर जा रहे हैं मुझे दुःख होता है ।
ין
गाना
आज मैं संसार में हूं, हा ! अकेला रह गया । भ्रात के जाने से मेरे, चित्त में दुख बह गया || इक तो वियोग पिताका था, फिर आप भी जाने लगे। श्रापही बतलाईये अब, किससे नाता रह गया | पर्दा गिरता है । दृश्य खतम होता है । द्वितिय अंक समाप्त ।
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