________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
देखा जिसमें गधे जुते हुए थे और उस पर एक आदमी बैठा हुआ था। गधे उसे हरे धान के खेत की ओर ले जा रहे थे। रास्ते में मुनि को जाते हुए देख कर रथ में बैठे हुए मनुष्य ने उन्हें पकड़ लिया, और उन्हें वह कप्ट पहुंचाने लगा। मुनि के ज्ञान का कुछ क्षयोपशम हो जाने से उन्होंने एक खण्ड गाथा पढ़ी-कहसि पुण णिक्खेवसिरे गहहा जवं पेच्छसि खादिमिति' । रे गधो, कष्ट उठानोगे तो तुम जो भी चोहो खा सकोगे।
एक दिन कुछ बालक खेल रहे थे, देवयोग से कोणिका भी वहीं पहुंच गई। उसे देखकर वे बालक डरे । उस समय कोणिका को देखकर यम मुनि ने एक और खण्ड गाथा बनाकर पढी
'अण्णत्थ कि पलोवह तुम्हे पण बुद्धि या छिद्दे अच्छई कोणिआ इति । दूसरी ओर क्या देखते हो? तुम्हारी पत्थर सरीखी कठोर बुद्धि को छेदने वाली कोणिका तो है ।
एक अन्य दिन यम मुनि ने एक मेंढक को एक कमल पत्र की आड़ में छुपे हए सर्प की ओर आते हए देखा। देखकर वे मेढक से बोले-'अम्हादो णत्थि भयं दोहादो दीसदे भयं तुम्हेति'। –मेरे आत्मा को किसी से भय नहीं है, किन्तु भय है तुम्हें।
यम मुनि ने जो कुछ थोड़ा-सा ज्ञान सम्पादन कर पाया, वह उक्त तीन खण्ड गाथात्मक ही था। वे उन्हीं का स्वाध्याय करते, इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ नही आता था। किन्तु उनका अन्तर्मानस पवित्र था। वे यथाजात मुद्रा के धारक थे, तपश्चरण करते और अनेक तीर्थों की यात्रा करते हए वे धर्मपुर आए। वे शहर के बाहर एक बगीचे में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो ध्यान करने लगे। उनके आने का समाचार उनके पत्र गर्दभ और राजमंत्री दीर्घ को ज्ञात हुआ। उन्होंने समझा कि ये हमसे पुनः राज्य लेने के लिये आये हैं। अतएव वे दोनों मुनि को मारने का विचार कर आधी रात के समय वन में आए और तलवार खींच कर उनके पीछे खड़े हो गए। मूनिवर ने निम्न गाथा पढ़ी-धिक राज्यं घिङ् मूर्खत्वं कातरत्वं च धिक्तराम् । निस्पृहाच्च मुनेर्यन शंका राज्येऽभवत्तयोः॥ –ोसे राज्य को, ऐसी मूर्खता और ऐसे डरपोकपने को धिक्कार है, जिससे एक निस्पृह और संसारत्यागी मुनि के द्वारा राज्य के छीने जाने का उन्हें भय हुआ। यद्यपि गर्दभ और दीर्घ दोनों मुनि की हत्या करने को आए थे, परन्तु उनकी उन्हें मारने की हिम्मत न पड़ी। उसी समय मुनि ने अपनी स्वाध्याय की पहली गाथा पढ़ी। उसे सुनकर गर्दभ ने मंत्री से कहा-जान पड़ता है मुनि ने हम दोनों को देख दिया है। पश्चात् मुनि ने दूसरी खण्ड गाथा पढ़ी, नहीं जी, मनिराज राज्य लेने नही आए हैं। मेरा वैसा समझना भ्रम था अज्ञान था। मेरी बहिन कोणिका के प्रेम ववेकछ कहने को आये जान पड़ते हैं । अनंतर मुनिराज ने तीसरी गाथा भी पढ़ी। उसका अर्थ गर्दभ ने यह समझा कि मंत्री दीर्घ बड़ा दुष्ट है, मुझे मारना चाहता है। अतएव भ्रमवश ही पिता जी मुझे सावधान करने आये हैं। थोड़ी देर में उनका मब सन्देह दूर हो गया। उन्होंने अपने हृदय की सब दुष्टता छोड़कर बड़ी भक्ति के साथ उन मुनिराज को प्रणाम किया और धर्म का उपदेश सुना। उपदेश सुनकर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए, और श्रावक के व्रतों को ग्रहण कर अपने स्थान को लौट गए।
यमधर मूनि निर्मल चारित्र का पालन करते हए अपने परिणामों को वैराग्य से सरावोर करने लगे। उनकी निस्पृह वृत्ति, पवित्र संयम का आचरण, और तपश्चरण की निष्ठता, एकाग्रता दिन-पर-दिन बढ़ रही थी। उन्हें तपश्चरण के प्रभाव से सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हुई। वे भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट सम्यकज्ञान की आराधना में तत्पर हए । लब्धि संयुक्त वे मुनि अन्य पाँच सौ मुनियों के साथ कुमारगिरि के शिखर से देवलोक को प्राप्त हए। जैसा कि कथा कोश के निम्नपद्यों से स्पष्ट है
१. यमयोगी परिप्राप्य गुरुमामीप्यमादगत् । घोरं तपश्चकारेदं विविद्धि समन्वितः ।।५।। पादानुमारिणी बुद्धिः कोप्ठबुद्धिस्तथैव च । मंभिन्नश्रोत्रिकाद्या हि बुद्धयः परिकीर्तिताः ।।५।। उग्रं तपम्तथा दीप्तं तपम्तप्तं महातपः । घोगदीनि विजानन्तु तपांसीमानि कोविदः ॥६०॥
-हरिषेण कथाकोष पृ० १३३