Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 506
________________ ४७२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सुन्दर कथन दिया हया है। ग्रन्थ काव्य-कला की दृष्टि से उच्चकोटि का है। ग्रन्ध में कवि ने दुवई, गाहा, चामर, पत्ता, पद्धडिया, समानिका और मत्तगयंद आदि छन्दों का प्रयोग किया है। रसों में शृगार, वीर, बीभत्स और शान्त रस का, तथा रूपक उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की भी योजना की गई है। इस कारण ग्रन्थ सरस और पठनीय बन गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। कवि चक्रवर्ती धीरसेन, देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद (ईस्वी सन् ४७५ से ५२५ ई०) जैनेन्द्र व्याकरण, वज्रमेन और उनका पड़दर्शन प्रमाण नाम का जैन न्याय ग्रन्थ का, रविपेण (वि० सं०७३४) तथा उनका पद्मचरित, पुन्नाटमंघी जिनसेन (वि० सं०८४०) और उनका हरिवंश, महाकवि स्वयभू, चतुमख तथा पुष्पदन्त, देवमेन का महेस रचरिउ (जयकुमारसुलोचना चरित) दिनकरसेन का अनंगचरित । ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्तियों में ग्रन्थ रचना में प्रेरक ग्वालियर नगर के सेठ अग्रवाल कलावतंश साह खेऊ या वेसिह के परिवार का विस्तत परिचय दिया हया है। और ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में कवि ने संस्कृत श्लोको में प्राश्रयदाता उक्त साह की मंगल कामना की है। द्वितीय संधि के प्रारम्भ का निम्न पद्य दृष्टव्य है। तीर्थेशो वषभेश्वरो गणनुतो गौरीश्वरो शंकरो, प्रादीशो हरिणंचितो गणपतिः श्रीमान्युगादिप्रभ । नाभेयो शिववाद्धिवर्धन शशिः कैवल्यभाभासरः, क्षेमाख्यस्य गुणांन्वितस्य सुमतेः कुर्याच्छिवं सो जिनः ।। में ऋषभदेव के जो विशेषण प्रयुक्त हए हैं वे जहाँ उनकी प्राचीनता के द्योतक हैं, वहाँ वे ऋपभदेव और शिव की सादृश्यता की झांकी भी प्रस्तुत करते है । ग्रन्थ सुन्दर है और इसे प्रकाश में लाना चाहिये। रिट्ठणेमिचरिउ' या 'हरिवंश पुराण' ग्रन्थ में १४ सन्धियाँ और ३०२ कडवक हैं तथा १६०० के लगभग पद्य होंगे, जिनमें ऋपभ चरित, हरिवंशोत्पत्ति, वसुदेव और उनका पूर्वभव कथानक, बन्धु-बान्धवां से मिलाप, कस बलभद्र और नारायण के भवों का वर्णन, नारायण जन्म, कंसवध, पाण्डवों का जुए में हारना द्रोपदी का चीर हरन, पाण्डवों का अज्ञातवास, प्रद्यम्न को विद्या प्राप्ति और श्रीकृष्ण से मिलाप, जरासंध वध, कृष्ण का राज्यादि सुखभोग नेमिनाथ का जन्म, बाल्यक्रीडा यौवन, विवाहमें वैराग्य, दीक्षा तथा तपश्चरण केवलज्ञान अोर निर्वाण प्राप्ति आदि का कथन दिया है। ग्रन्थ में जैनियों के बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ को जीवन-घटनाओं का परिचय दिया हुया है । नेमिनाथ यदुवंशी क्षत्री थे और थे कृष्ण के चचेरे भाई । उन्होंने पशुप्रों के वधन खुलवाए अोर संसार को असारता को देख, वैरागी हो तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन किया, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बने, और जगत को आत्महित करने का मुन्दरतम मार्ग बतलाया । उनका निर्वाण स्थान ऊर्जयन्त गिरि या रैवगिरि है जो आज भी नेमिनाथ के अतीत जीवन की झांको को प्रस्तुत करता है। तीर्थकर नेमिकुमार की तपश्चर्या और चरण रज से वह केवल पावन ही नहीं हुआ, किन्तु उसकी महत्ता लोक में आज भी मौजूद है। इस ग्रन्थ की रचना योगिनीपुर (दिल्ली) से उत्तर की ओर वसे हुए किसी निकटवर्ती नगर का नाम था जो पाठ की अशुद्धि के कारण ज्ञात नहीं हो सका । ग्रन्थ की रचना उस नगर के निवासी गोयल गोत्रीय अग्रवाल वंशी महाभव्य साहु लाहा के पुत्र संघाधिप साहु लोणा की प्रेरणा से हुई है । ग्रन्थ की आद्यन्त प्रशस्तियों में साह लोणा के परिवार का संक्षिप्त परिचय कराया गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती विद्वानों और उनके कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया है, देवनन्दि (पूज्यपाद) जैनेन्द्र व्याकरण, जिनसेन (महापुराण) रविषेण (जैन रामायण-पद्मचरित) कमलकीति और उनके पट्टधर शुभचन्द्र का नामोल्लेख है। जिनका पट्टाभिषेक कनकगिरि वर्तमान सोनागिरि में में हुआ था । साथ ही कवि १. कमल कित्ति उतम खमधारउ, भव्वह-भव-अंबोरिणहि-तारउ । तस्स पट्ट करणयट्ठि परिछिउ, सिरि-सुहचंद मु-तव-उक्कंट्ठिउ॥ हरिवंश पु०प्र०

Loading...

Page Navigation
1 ... 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591