Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 569
________________ १५त्री, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५३५ चैत्र वदी अष्टमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में की है। अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड- इसमें चार परिच्छेद हैं और २५० श्लोक हैं, रचना प्रौढ़ है, इसमें मोक्ष, मोक्ष मार्ग का लक्षण, द्रव्य सामान्य, द्रव्य विशेष और अन्तिम चतुर्थ परिच्छेद में साततत्व नौ पदार्थों का वर्णन है। कवि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में चिदात्मभाव को नमस्कार किया है, और संसार ताप की शान्ति के लिए मोहनीय कर्म को नाश करने के लिए ग्रन्थ की रचना की है। समयसारकलश टीका-कवि ने प्राचार्य प्रमतचन्द्र द्वारा रचित समयसार की प्रात्मख्याति टीका के संस्कृत पद्यों में उसके हार्द को अभिव्यक्त करने वाले जो कलश रूप पद्य दिये हैं, उन्हीं पद्यों को हृदयंगम कर उनकी खंडान्वयात्मक बालबोध टीका लिखी है। यह टीका जिनागम, गुरुउपदेश, मुक्ति और स्वानुभव प्रत्यक्ष को प्रमाण कर लिखी गई है । यद्यपि टोका की भाषा ढुंढारी ब्रज-राजस्थानी मिश्रित है फिर भी गद्य काव्य सम्बन्धी शैली और लालित्यादि विशेपताओं से प्रोत-प्रोत है। पढ़ते ही चित्त में आह्लाद उत्पन्न करती है। ___टीका में प्रत्येक श्लोक के पद-वाक्यों का शब्दशः अर्य करते हुए उसके मथितार्थ को 'भावार्थ इस्यो' वाक्य द्वारा प्रकट किया है। खंडान्वय में विशेषणों और तत्सम्बन्धी सन्दर्भो का स्पष्टीकरण बाद में किया जाता है। राजमल्ल की इस टीका में उक्त पद्धति से ही विवेचन किया गया है । टीका में अनेक विशेपताएं पाई जाती है । जान पड़ता है कवि ने समय सारादि ग्रन्थों का खूब मनन किया था। उन्होंने उसका अनुभव होने पर ही इस टीका की रचना की है । टीका कब रची गई, इसका उल्लेख नहीं मिलता। टीका मनन करने योग्य है। ___ कवि ने इस टीका का निर्माण संवत् १६८० से पूर्व १६४० में किया है क्योंकि १६८० में अरथमलढोर ने यह बनारसोदास को दी है। उसके प्रचार-प्रसार में समय लगा होगा। लाटी संहिता-यह प्राचार-शास्त्र का ग्रन्थ है। इसमें सात सर्ग और पद्यों की संख्या १६०० के लगभग है। कवि ने इस रचना को अनुच्छिप्ट और नवीन बतलाया है । कवि ने यह गश अग्रवाल वंशावतस मगल गोत्रीं साह दूदा के पुत्र संघ के अधिपति 'फामन' नाम के श्रेष्ठी के लिए बनाया है। कवि फामन के वंश का विस्तृत वर्णन करते हुए फामन के पूर्वजों का मूल निवास स्थान 'डौकीन' नगरी बतलाया है। फामन ने बैराट नगर के 'ताल्हू' नाम के विद्वान की कृपा से धर्म-लाभ किया था। जो भट्टारक हेमचन्द्र की आम्नाय के बालक थे । बैराट नाम का यह नगर वही प्रसिद्ध नगर जान पड़ता है जो राजा विराट की राजधानी था, जो मत्स्य देश में स्थित था और जहाँ बनवास के समय पाण्डव लोग गुप्त रूप में रहे हैं । यह नगर जयपुर से लगभग ४० मील दूर है । कवि ने इस नगर की खुब प्रशंसा की है। वहां उस समय अकबर बादशाह का शासन था और नगर कोट-खाई से युक्त था । उसकी पर्वतमाला में तांबे की कितनी ही खाने थी जिनसे तांबा निकाला जाता था। नगर में ऊँच स्थान पर फामन के बडे भाई न्योतो ने एक विशाल जिनमन्दिर का निर्माण कराया था जो एक कीर्ति स्तम्भ ही था। यह दिगम्बर जैनमन्दिर बहत विशाल और अनेक सुन्दर चित्रों से अलंकृत था। यह मन्दिर पार्श्वनाथ के नाम से लोक १. देखो, जम्बू स्वामीचरित के अन्त की गद्य प्रशस्ति। २. अध्यात्मकमल मार्तण्ड के प्रारम्भ के चार पद्य । ३. सत्यं धर्म रसायनो यदि तदा मां प्रशिक्षयोप कमात सारोद्धारमिवाप्यनुग्रहतया स्वल्पाक्षर सारवत् । आपं चापि मृदूक्तिभि. स्फुटमच्छिष्टं नवीनं महनिर्माणं परिधेहि संघ नपतिर्भूयाप्यवादीदिति ॥७६ लाटी संहिता ४. तत्राद्यस्य वरो सुतो वरगुणो न्योताह्व संघाधिपो, येनैतज्जिनमन्दिरं स्फुटमिह प्रोत्तुंगमत्यद्भुतं । वैराटे नगरे निधाय विधिवत्पूजाश्च बह्वयः कृताः । पत्रामुत्र सुखप्रदः स्वयशसः स्तंभः समारोपितः ।। ७२ लाटी संहिता

Loading...

Page Navigation
1 ... 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591