Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 587
________________ १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५५३ प्रकाशित सिद्धान्त सारादि संग्रह में मुद्रित हो चुका है । और पहला ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । कवि ने इसकी अन्तिम प्रशस्ति में अपना परिचय भी अंकित कर दिया है। कवि ने इस चन्द्रिका टीका को वि० सं० १७२६ की दीपमालिका के दिन गुरुवार को चित्रा नक्षत्र और वश्चिक लग्न में बनाकर समाप्त किया है। कवि की अन्य रचनाएं प्रन्वेषणीय है। कवि का समय १८ वी शताब्दी है। अरुणर्माण यह भट्टारक श्रुतकीति के प्रशिष्य और बुध राघव के शिष्य थे । बुध राघव ने ग्वालियर में जैन मन्दिर बनवाया था। इनके ज्येष्ठ शिष्य बुध रत्नपाल थे, दूसरे वनमाली तथा तीसरे कान्हरसिंह थे। प्रस्तुत प्ररुणमणि (लालमणि) इन्हीं कान्हरसिंह के पुत्र थे। प्रशस्ति में इन्होंने अपनी गुरु परम्परा' इस प्रकार बतलाई है-काष्ठा संघ में स्थित माथ रगच्छ और पुष्करगण में लोहाचार्य के अन्वय में होने वाले भ० धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीति, यशकीति, जिनचन्द्र, श्रुतिकीर्ति के शिष्य बुधरत्नपाल, वनमाली और कान्हरसिंह । इनमें कान्हरसिह के पुत्र प्ररुणमणि ने 'अजित पुराण' की रचना मुगल बादशाह अवरगशाह (औरंगजेब) के राज्य काल में सं० १७१६ में जहानाबाद नगर (वर्तमान न्यू दिल्ली) के पार्श्वनाथ जिनालय में बनाकर समाप्त की है। इनके शिष्य ५० बलाकीदास थे। इन्होंने दिल्ली में बलाकीदास को पढ़ाया था। कवि बलाकीदास ने प्रश्नोत्तर श्रावकाचार प्रशस्ति में इनका निम्न पद्यों में उल्लेख किया है "अरुन-रतन पंडित महा, शास्त्र कला परवीन । बलचन्द तिनपै पढ्यो, ग्यान प्रश तहाँ लोन ॥१६ बहुत हेत करि प्ररुन नै, दयो ज्ञान को भेद। तव सुबुद्धि घट में जगी, करि कुबुद्धि तम छेद ॥"२० प्रस्तुत अजितपुराण में दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। रचना सरस और सरल है। भट्टारक देवेन्द्रकोति यह मूलसंघ के भट्टारक जगतकीति के पट्टधर थे । जगतकीति भ० सुरेन्द्रकीति के पट्ट पर सं० १७३३ में १. सवत्सरे निधिदृगश्व शशाङ्कयुक्त दीपोत्सवाख्य दिवसे सगुरो सचित्रे । लग्नेऽलि नाम्नि च समाप गिरः प्रसादात सदादिराज रचिता कवि चन्द्रिकेयम् ॥१ श्री राजसिंह नपतिजयसिंह एवं श्री तक्षकाख्यनगरी अहिल्लतुल्या। श्री वादिराज विबुधोऽपर वाग्भटोऽयं श्री सूत्र वृत्तिरिह नन्दतु चार्क चन्द्रम् ॥ २ श्रीमद्भीमनपालजस्य बलिनः श्री राजसिंहस्य मे, सेवायामवकाशमाप्य विहिता टीका शिशूनां हिता। होनाधिक्य वचो यदत्र लिखितं तद्वं बुधः क्षम्यताम् । गार्हस्थ्यावनिनाथसेवनधियः कः स्वस्थता माप्नुयात् ॥३ २. देखो, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग १, पृ०६७। ३. रस-वृष-यति-चंद्रे ख्यात संवत्सरे (१७१६) ऽस्मिन्, नियमित सितवारे वैजयन्ती दशम्यां, अजित जिनचरित्रं बोध पात्रं बुधानां, रचितममलवाग्मि-रक्त रत्नेन तेन।।४० मुद्गले भूभुजां श्रेष्ठे राज्येऽवरंग साहिके।' जहानाबाद-नगरे पाश्र्वनाथ जिनालये ४१

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