Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 583
________________ १५वीं, १६वीं, १७वी और १८वी शताब्दी के प्राचार्य, भद्रारक और कवि ५४६ पौर हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान कवि थे। इनको अधिकांश रचनाएं हिन्दी पद्य में लिखी गई हैं, जिनकी सख्य। ६० के लगभग है। उनमें कई रचनाएं भाषा साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जैसे अनेकार्थ नाममाला (कोष) सीतासतु, टंडाणारास, मादित्य व्रतरास, खिचड़ी रास आदि' । इनकी सब उपलब्ध रचनाए सवत् १६५१ से १७०४ तक की उपलब्ध है, जो चकत्ता बादशाह अकबर' जहागीर और शाहजहां के राज्य में रची गई हैं। ज्योतिष और वैद्यक की रचनाओं को प्रशस्ति सस्कृत म रची थी, रचना हिन्दा पद्या म है जो कारजा के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं। इनके रचे अनेक पद और गीत आदि भा मिलते है । रचनाओं में अनेक रचना-स्थलां का उल्लेख किया है। उनमें बुढ़िया (अम्बाला) दिल्ली, आगरा, हिसार, कपित्थल, सिहदि आदि । कवि को रचनाए' मनपुरो, दिल्ली, अजमेर आदि के शास्त्र भंडारों में उपलब्ध है। कवि की सब रचनाएं संवत् १६५१ से १७०४ तक की उपलब्ध होती हैं । अतएव कवि का कार्य काल ५४ वर्ष है। कवि की अपभ्रंश भाषा की तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-मगांक लेखाचरिउ, सुगंधदसमी कहा और मुकुट सप्तमी कथा । मृगांक लेखाचरित में चार संधियां है जिनमें कवि ने चन्द्रलेखा और सागरचन्द के चरित वर्णन करते हए चन्द्रलेखा के शीलवत का माहात्म्य ख्यापित किया है। चन्द्रलेखा विषदा के समय साहस और धैर्य का परिचय देती हुई अपने शोलवत से जरा भी विचलित नही होतो, प्रत्युत उसमें स्थिर रहकर अपने सतीत्व का जो प्रादर्श उपस्थित किया है, वह अनुकरणीय है। ग्रन्थ की भाषा अपभ्रंश होते हुए भी हिन्दी के अत्यधिक नजदीक है। जैसा कि उसके दोहों से स्पष्ट है ससिलेहा णियकंत सम, धारई संजमु सार जम्मणु मरण जलंजली, दाण सुयणु भव-तार ॥ करि तणु तउ सिउपुर गयउ, सो वणि सायरचंदु । ससिलेहा सुरवरु भई तजि तिय-तणु अइणिदु ॥ मुकुट सप्तमी कथा में मुकुट सप्तमी व्रत को अनुष्ठान-विधि का कथन किया गया है। सुगंधदसमी कथा में 'भाद्रपद शुक्ला दसमी के व्रत का विधान और उसके फल का वर्णन किया गया है । शेष सभी रचनाएं हिन्दी की हैं। कवि का समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और अठारहवीं का पूर्वार्ध है। भ. सिंहनन्दी मलसंघ पुष्कर गच्छ के भट्टारक शुभचन्द्र के पट्ट पर प्रतिष्ठित हए थे। इन्होंने 'पंच नमस्कार दीपिका' नाम का ग्रन्थ सं० १६६७ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन समाप्त किया है। अन्दैस्तत्त्व रसतु चंद्र कलिते (१६६७) श्री विक्रमादित्यके । मासे कातिक नामनीह धबले पक्ष शरत्संभवे । वारे भास्वति सिद्ध नामनि तथा योगेषु पूर्णातियौ, नक्षत्रेऽश्वनि नामनि तत्वरसिकः पूर्णाकृतो ग्रन्थकः ॥५५ ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन बम्बई की ग्रन्थ सूची में 'व्रततिथि निर्णय' नाम का एक ग्रंथ भ. सिंहनन्दी के नाम से दर्ज है। यह ग्रन्थ पारा के जैन सिद्धान्त भवन में भी पाया जाता है, पर बह इन्हीं सिंहनन्दी १. देखो, बनेकान्त वर्ष ११ किरण ४-५ तथा अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ प०१०४ २. संवत सोलह सइ जु इक्यावन, रविदिनु मास कुमारी हो, जिन बंदनु करिफिरि घरि-आए, विजय दसमि सजयारी हो (अर्गलपुर जिनवंदना) मह रचना अकबर के राज्य में रची गई है। ३. श्री मूल संघे वर पुष्कराज्ये गच्छे सुजातः शुभचन्द्र सूरि । तस्याऽत्र पट्टेऽजनि सिंहनन्दिर्भट्टारकोऽभूद्विदुषां वरेण्यः ॥५३

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