Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 581
________________ १५वीं, १६वी, १७वी और १५वी शताब्दी के आचार्य, भद्रारक और कवि ५४७ चक्रसेन और मित्रसेन । चक्रमेन की पत्नी का नाम कष्णावती था, और उससे केवलसेन तथा धर्म सेन नाम के दो पुत्र हुए। मित्रमेन की धर्मपत्नी का नाम यशोदा था। उससे भी दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। उनमें प्रथम पुत्र का नाम भगवानदास था, जो बडा ही प्रतापी और गघ का नायक था। और दूसरा पुत्र हरिवश भी धर्म प्रेमी और गुण सम्पन्न था। भगवान दास की धर्मपत्नी का नाम केशरिदे था। उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे-महासेन, जिनदास और मुनिसुव्रत । मघाधिप भगवानदास ने जिनेन्द्र भगवान की प्रतिष्ठा कराई थी और संघराज की पदवी को प्राप्त किया था। वह दान में कर्ण के समान था। इन्ही भगवानदास की प्रेरणा से पडित रूपचन्द्र जी ने प्रस्तुत पाठ की रचना की थी। पंडित रूपचन्द्र जी ने दुग ग्रन्थ की प्रशस्ति में नेत्रसिह नाम के अपने एक प्रधान शिष्य का भी उल्लेख किया है, पर वे कौन थे और कहा न निवासी थे, यह कुछ मालूम नही हो सका। उक्त सरकत पाठ के प्रति रक्त कवि रूपचन्द्र का हिन्दी भाषा की निम्न कृतिया उपलब्ध है, जिनमें रूपचन्द्र दोहाशतक, पचमगल पाठ, नेमिनाथ राम, जकड़ी और खटोलना गीत आदि है। R सुमतिकोति भूल मघ स्थित नन्दिमघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण ओर कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान भट्टारक प्रभाचन्द्र के पटटधर थे। भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र इनके दीक्षा गुरु और भ० वीरचन्द्र शिक्षागुरु थे। साथ मे सुमतिकीति ने ज्ञानभपण को गुरु मानकर नमस्कार किया है। इन्होने प्राकृत पचसग्रह की सस्कृत टीका हसा ब्रह्मचारी के उपदेश में वि० म० १६२० मे भाद्रपद शुक्ला दशमी के दिन ईडर के आदिनाथ मन्दिर में बनाकर समाप्त की है। पचमग्रह में जीव ममाम, प्रकृति समुत्कीर्तन, कर्मस्तव शतक और सप्तति इन पाँच प्रकरणों का सग्रह है । प्राकृत मग्रह की यह मूल प्राकृत रचना बहुत पुरानी है। इस पर पद्मनन्दी की प्राकृत वृत्ति भी है । इम पचमग्रह का १०वी ११वी शताब्दी में तो सस्कृतकरण श्रीपाल सुत डड्ढा ओर अमितगति ने किया है। इतना ही नही किन्तु पंचसग्रह की प्राकृत गाथाएं धवला में उद्धत पाई जाती है। सम्भवतः मूल पचमग्रह प्रकलक देव के सामने भा रहा है । प० आशाधर जी ने मूलाराधना दर्पण नाम को टीका में इसका ५ गाथाए उद्धत की है। इसके उत्तर तत्रकर्ता लोहारिया भट्टारक अथ भूदिअ पायरिया वाक्य से आत्म भूति आचार्य जान पड़ते है। इससे इसकी प्रामाणिकता और प्राचीनता झलकती है । भट्टारक सुमतिकीति ने इसकी टीका १७वी शताब्दी के पूर्वार्धन बना है। समतिकाति ने धर्मपरीक्षा नाम कारक ग्रन्थ गुजराती भाषा मे १६२५ में बनाया है। ऐ०प०दि जेन सरस्वता भवन बम्बई की सूची में 'उत्तर छत्तीसी' नामक एक सस्कृत ग्रन्थ है जो गणित विपय पर लिखा गया है, उसके कर्ता भी सम्भवतः यही सुमतिकीति है। स० १६२७ मे त्रिलाकसार रास की रचना कोदादा शहर में को। की टीम में पूर्ववर्ती हे । मू खो और मन्दिरी की विशालना से गोलापूर्वान्वय गौरवान्वित है। वर्तमान में भी उमा पाग अनक शिवरवाद मन्दिर विद्यमान है। गोलापून्विय के सवत् ११६६,१२०२, १२०७,१२१३ और १-३७ आदि के अनेक लेख हे। जिनसे इस जाति की सम्पन्नता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस उपजाति में भी अनक प्रतिष्ठिन विद्वान, ग्रन्यकार, और श्रीसम्पन्न परिवार रहे है । वर्तमान में भी अनेक डाक्टर, आचार्य और विद्वान एव व्याख्याता आदि है। विशेष परिचय के लिए देखे 'शिलालेखो मे गोलापूर्वान्वय' भनेकान्त वर्ष २४, कि०३ पृ० १०२ १. 'तत्य गुगागणामं भागहणा इदि । किं कारण ? जेण आराधिज्जन्ते अणाम दसण-गाण-चरित्त-तवाणि ति। कतारा तिविधा-मूलततकत्ता, उत्तरतत कत्ता, उत्तरोत्तर तत कत्ता चेदि । तत्व मूलतन कत्ता भयव महावीरो। उत्तरताकत्ता गोदम भयवदो । उत्तरोत्तरतंतकत्ता लोहायरिया भट्टारक अप्प भूदिअ आयरिया।" (-पंच स० ५४३,४४)

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