Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 524
________________ ४६० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ वे सोचने लगे कि भाई को परिग्रह की चाह ने अंधा कर दिया है और अहंकार ने उनके विवेक को भी दूर भगा दिया है। पर देखो, दुनिया में किसका अभिमान स्थिर रहा है ? अहकार को चेष्टा का दण्ड हो तो अपमान है। तुम्हें राज्य की इच्छा है तो लो इसे सम्हालो और जो उस गद्दी पर बैठे उसे अपने कदमों में झुकालो, उस राज्य सत्ता को धिक्कार है, जो न्याय-अन्याय का विवेक भुला देती है। भाई-भाई के प्रेम को नष्ट कर देती है और इंसान को हैवान बना देती है । अब मै इस राज्य का त्याग कर प्रात्म-साधना का अनुष्ठान करना चाहता हूँ ओर सबके दग्बते देखते ही वे तपोवन को चले गये, जहां दिगम्बर मुद्राद्वारा एक वर्ष तक कायोत्सर्ग में स्थित रहकर उस कठोर तपश्चर्या द्वारा आत्म-साधना की, और पूर्ण ज्ञानी वन स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त हए। ग्रन्थ में अनेक स्थल काव्यमय और अलकृत मिलते हैं। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती अनेक कविनों ओर उनको कुछ प्रसिद्ध कृतियों का नामोल्लेख किया है-जमे कविचक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता देवनन्दो (पूज्यपाद) श्री वज्रसूरि और उनके द्वारा रचित पट्दर्शन प्रमाण ग्रन्थ, महासन सुलोचना चरित, रविपण पद्मचरित जिनसन हरिवश पुराण, मुनि जटिल वरागरित, दिनकर सन कदप चरित, पद्मसन पार्श्वनाथ चरित, अमृताराधना गणिग्रम्बसेन, चन्द्रप्रभ चरित, धनदत्त चारत, कवि विष्णु सेन मुनिसिहनन्दी, अनुप्रेक्षा, णवकार मन्त्र-नरदेव' कवि असग-वीरचरित, सिद्धसेन, कवि गोविन्द, जयधवल, शालिभद्र, चतुमुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदन्त प्रोर सेढ कवि। कवि ने इस ग्रथ का नाम 'काम चरि उ या कामदेव चरित भी प्रकट किया है और उसे गुणों का सागर बतलाया है । ग्रन्थ में यद्यपि छन्दों की बहुलता नहीं है फिर भी ११ वी संधि में दोहों का उल्लेख अवश्य हया है। कवि ने इस ग्रथ की रचना उस समय का है जब कि हिन्दी भाषा का विकास हो रहा था। कवि ने इसे वि. स. १४५४ में वशाख शुक्ला त्रयोदगी को स्वाति नक्षत्र में स्थित सिद्धियोग में सोमवार के दिन, जबकि चन्द्रमा तुला राशि पर स्थित था पूर्ण किया है। प्रन्य निर्माण में प्रेरक प्रस्तुत ग्रन्थ चन्द्रवाड नगर के प्रसिद्ध राज श्रेष्ठी और राजमंत्री, जो जादव कुल के भूपण थे । साह वासाधर की प्रेरणा से बनाया है, और उन्ही के नामांकित किया है । वासाधर के पिता का नाम सोमदेव था, जो सभरी नरेन्द्र कर्णदेव के मन्त्री थे । कवि ने साहु वासाधर को सम्यक्त्वी, जिन चरणों के भक्त, जिन धर्म के पालन में तत्पर. दयालु, बहलोक मित्र, मिथ्यात्वरहित ओर विशुद्ध चित्तवाला बतलाया है। साथ ही आवश्यक दैनिक षट कर्मों में प्रवीण, राजनीति में चतुर और अष्ट मूलगुणों के पालने में तत्पर प्रकट किया है। जिणणाह चरणभत्तो जिणधम्मपरो दया लोए, सिरि सोमदेव तणो णंदउ वासद्धरो णिच्चं ॥ सम्मत्त जुत्तो जिणपायभत्तो दयालुरत्तो बहुलोयमित्तो। मिच्छत्त चत्तो सुविसु द्ध चित्ते वासाधरो णदंउ पुण्यचित्तो। -सन्धि ३ वासाधर की पत्नी का नाम उभयश्री या, जो पतिव्रता और शीलव्रत का पालन करने वाली तथा चत. विध संघ के लिए कल्पनिधि थी। इनके पाठ पुत्र थे, जसपाल, जयपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, विहराज, पुण्यपाल, वाइड और रूपदेव । ये सभी पुत्र अपने पिता के समान ही सुयोग्य, चतुर और धर्मात्मा थे । इन आठों पुत्रो के साथ १. श्री लंब के कुलपद्म विक्रामभानुः, सोमात्मजो दुरित चारुचयकृशानुः । धमकमाधनपरो भुविभव्य बन्धुर्वासाधरो विजयते गुणरत्नसिन्धुः-संधि । २. बिक्कमणग्दि किय ममए, च उदहसय संबच्छरहि गए। पंचामवरिसचउ अहिय गणि वैसाहरहो सिय-तेरसि सु-दिणि । साईणक्खत्ते परिट्ठियई वार सिद्ध जोग णामें ठियई। -बाहुबलि चरिउ प्रशस्ति

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