Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 562
________________ ५२८ बन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ शृंखला का विनाश कर अविनाशी पद प्राप्त किया। भट्टारक शुभचन्द्र ने इस पावन चरित की रचना संवत् १६०३ में की है। - अंगपण्णत्तो-यह प्राकृत भाषा का ग्रन्थ है। इसमें २४८ गाथाएं दी हुई हैं, जिनमें अंग पूर्वादि का स्वरूप पौर पदादि की संख्या दी हुई है। ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के सिद्धान्त सारादि संग्रह में प्रकाशित हो चुका है। ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका-यह स्वामी कुमार की प्राकृकि गाथामों में निबद्ध अनुप्रेक्षा ग्रन्थ है जिसे कार्तिकेयानुप्रेक्षा कहा जाता है । मूल ग्रन्थ में ४६१ गाथाएँ हैं । इन अनुप्रेक्षात्रों को ग्रन्थकार ने भव्यजनों के प्रानन्द को जननी लिखा है, ग्रन्थ हृदयग्राही है और उक्तियाँ अन्तस्तल को स्पर्श करती हैं। शुभचन्द्र ने टीका द्वारा मूल गाथाओं का अर्थ उद्घाटित करते हए अनेक ग्रन्थों से समृद्धत पद्यों द्वारा उस विषय को स्पष्ट करने है । शुभचन्द्र के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र ने भी कुछ भाग लिखा था। वह भी उसमें शामिल कर लिया गया है । भट्टारक शुभचन्द्र ने यह टीका वि० सं० १६१३ में बनाकर समाप्त की है। श्रेणिक चरित्र-इस ग्रंथ में १५ पर्व हैं जिनमें मगध देश के शासक और भगवान महावीर के प्रमुख श्रोता राजा श्रेणिक बिम्बसार का जीवन-वृत्त अंकित किया गया है। इसका दूसरा नाम 'पद्मनाभ पुराण' भी हैं। क्योंकि श्रेणिक का जीव पद्मनाभ नाम का प्रथम तीर्थकर होगा, इस कारण ग्रन्थ का नाम भी पद्मनाभचरित रख दिया गया है। कर्ता ने इसका रचनाकाल नहीं दिया। करकण्डु चरित-इसमें १५ सर्ग हैं । यह एक प्रबन्ध काव्य है। इसमें राजा करकंड का जीवन परिचय अंकित किया गया है। चरित पावन रहा है, और ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । यह राजा पार्श्वनाथ को परम्परा में हुआ है । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना संवत् १६११ में जवाछपुर के प्रादिनाथ चैत्यालय में की है । इस ग्रन्थ की रचना में शुभचन्द्र के शिष्य सकलभूषण सहायक थे। पाण्डव पुराण-इस ग्रन्थ में २५ सर्ग या पर्व हैं जिनमें पाण्डवों आदि का जीवन-परिचय दिया हुआ है। उनकी जीवन-घटनामों का भी उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में कवि ने अपने रचित २८ ग्रन्थों का उल्लेख किया है । शुभचन्द्र ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १६०८ में बाग्वर देश के शाकीवाटपुर के आदिनाथ चैत्यालय में की है। इसकी रचना ने श्रीपाल वर्णी ने सहायता की है। १. श्रीमद् विक्रमभूपतेर्वसुहत दंतेशते सप्तह । वेदय॑नतरे समे शुभतरे मासे वरेण्ये शुचौ । वारेणीष्पतिक त्रयोदशतिथी सन्नुतने पत्तने । श्रीचन्द्रप्रभधाम्नि वैविरचितं चेदं मया तोषतः ॥७॥ जीवं० प्र० २. श्रीमत् विक्रम भूपतेः परमिते वर्षे शते षोडशे। माघे मासि दशाग्रवन्हि सहिते (१६१३) ख्याते दशम्यां तिथी। श्रीमधीमहिसार-सार नगरे चैत्यालये श्रीगुरोः । श्रीमच्छी शुभचन्द्र देव-विहिता टीका सदा नन्दतु ॥६॥ ३. द्वयष्टे विक्रमतः शते समहते चका दशान्दाधिके, भाद्रे मासि समुज्वले युगतियो खङ्ग जवाछापुरे। श्री मद्रीवृषभेश्वरस्य सदने चके चरित्रत्विदं । राज्ञः श्री शुभचन्द्रसूरि यतिपश्चंपाधिपस्याद् ध्रुवं ॥५५॥ -करकण चरित प्र० ४. श्रीमद्विक्रमभूपतेर्दिकहते स्पष्टाष्टसंख्ये शते। रम्येऽष्टाधिकवत्सरे (१६०८) सुखकरे भाद्र वितीया तिथी। . श्रीमद्वाग्वर नोवृतीमतुले श्री शाकबाडेपुरे, श्रीमच्छीपुरुषाम्नि वरचितं स्यात्पुराणं चिर ॥१६ .

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