Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 566
________________ ५३२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ भ० वादिचन्द्र यह मूलसंघ सरस्वती गच्छ के भट्रारक-भट्रारक ज्ञानभूषण द्वितीय के प्रशिष्य और भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान कवि और प्रतिष्ठाचार्य थे । इनको पट्ट परम्परा निम्न प्रकार है:-विद्यानन्दि के पट्टधर मल्लिभूषण, उनके पट्टधर लक्ष्मीचन्द्र, वोरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और इनके पट्टधर वादिचन्द्र । इनको गद्दी गुजरात में कही पर थी। इनकी निम्न रचनाए उपलब्ध हैं-पार्श्वपुराण, ज्ञानसूर्योदय नाटक, पवनदूत, सुभग सुलोचना चरित, श्रीपाल पाख्यान, पाण्डवपुराण, और यशोधर चरित। होलिका चरित ओर अम्बिका कथा । पार्श्वपुराण-इस ग्रन्थ में १५०० पद्य है जिनमें भगवान पार्श्वनाथ का चरित अकित है। इस ग्रन्थ को कवि ने वि० सं० १६४० कार्तिक सुदो ५ के दिन बाल्मीकि नगर में बनाया है ' । वादिचन्द्र ने अपने गुरु प्रभाचन्द्र को बौद्ध, काणाद, भाट्ट, मीमांसक, सांख्य, वैशेषिक आदि को जीतने वाला और अपने को उनका पट्ट सुशोभित करने वाला प्रकट किया है बौद्धो मूढति बौद्ध भितिमतिः काणादको मूकति, भट्टो भृत्यति भावनाप्रतिभटो मीमांसको मन्दति । सांख्यः शिष्यति सर्वथैवकथनं वैशेषिको कति, यस्य ज्ञानपाणतो विजयतां सोऽयं प्रभाचन्द्रमा॥ ज्ञानसर्योदय नाटक-यह एक सस्कृत नाटक है, जो 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक नाटक के उत्तर रूप में लिखा गया है। कृष्णमिश्रयति परिव्राजक ने बुन्देलखण्ड के चन्देल वंशो राजा कीर्तिवर्मा के समय में उक्त नाटक रचा है। कहा जाता है कि वि० सं० ११२२ में उक्त राजा के सामने यह नाटक खेला भी गया था। इसके तीसरे अंक में क्षपणक (जैन मुनि) को निन्दित एवं घृणित पात्र रूप में चित्रित किया है। वह देखने में राक्षस जसा है ओर श्रावकों को उपदेश देता है कि तुम दूर से चरण वन्दना करो, ओर यदि हम तुम्हारी स्त्रियों के साथ अति प्रसग करे तो तम्हें ईर्षा नहीं करनी चाहिये । प्रादि । उसी का उत्तर वादिचन्द्र ने दिया है। दोनों नाटकों की तुलना करने से पात्रो को समानता है, दोनो के पद्य पार गद्य वाक्य कुछ हेर फर के साथ मिलते है। अस्तु, कवि न इस ग्रन्थ को रचना वि० सं० १७४८ में मधूक नगर (महुमा) में समाप्त का थी वसु-वेद-रसाब्जके वर्षे माघे सित्ताष्टमी दिवसे । श्रीमन्मधूकनगर सिद्धोऽयं बोधसंरभः ।। पवन दूत-यह एक खण्ड काव्य है, जिसकी पद्य सख्या १०१ है। जिस तरह कालिदास के विरही यक्ष ने मेघ के द्वारा अपनी पत्नी के पास सन्देश भेजा है, उसी तरह इसमे उज्जयिनी के राजा विजय न अपना प्राणाप्रया तारा के पास, जिसे प्रशनिवेग नाम का विद्याधर हर ले गया था, पवन को दूत बनाकर विरह सन्देश भेजा है। यह रचना सुन्दर और सरस है । अपने पद्य में कवि ने अपने नाम के सिवाय अन्य कोई परिचय नही दिया है । पद्य स स्पष्ट है कि यह रचना विगतवसन वादिचन्द्र का है । यह वादिचन्द्र वही है जा ज्ञान सूर्योदय नाटक के कत्ता है। सुभग सुलोचना चरित्र-इस ग्रन्थ की एक प्रति ईडर के शास्त्र भडार में है । प्रशस्ति से जान पड़ता है कि १. तत्पट्टमण्डनं सूरिदिचन्द्रा व्यरीरचत् । पुराणमेतत्पाश्वस्य वादिवृन्द शिरोमणिः ॥२ शून्यवेदरासाब्जाके वर्षे पक्षे समुज्वले । कातिके मासि पचम्या बाल्मीक नगरे मुदा॥३ पा० पु०प्र० २. पादौ नत्वा जगदुयकृस्वर्थ सामर्थ्यवन्तौ विघ्नध्वान्तप्रसर तरणेः शान्तिनाथस्य भक्त्या । श्रोत चैतत्सदसि गुणितावायुद्ताभिधानं, काव्यं चक्रे विगतवसनः स्वल्पधीर्वादिचन्द्रः॥ -पवन-द्रत

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