Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 565
________________ ५३१ १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आवार्य, भट्टारक और कवि "पुरे शेरपुरे-शान्तिनाथचंत्यालये वरे। वसुखकायशीतांशु (१६०८) संवत्सरे तथा ॥ ज्येष्ठमासे सिते पक्षे दशम्यां शुक्रवासरे। अकारि ग्रन्थः पूर्णोऽयं नाम्ना दृष्टिप्रबोधकः ।।" कवि जिनदास ने इस ग्रन्थ को भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य मूनि धर्मचन्द्र और धर्मचन्द्र के शिष्य मूनि ललित कीति के नाम किया है। कवि का समय १७वीं शताब्दी का पूर्वार्ष है। ब्रह्मकृष्ण या केशवसेनसूरि काष्ठासंघ के भट्टारक रत्नभूषण के प्रशिष्य और जयकीर्ति के पट्टधर शिष्य थे। यह कवि कृष्णदास के नाम से प्रसिद्ध थे। वाग्वर (बागड) देश के दम्पति वीरिका और कान्तहर्ष के पुत्र और ब्रह्म मंगलदास के अग्रज (ज्येष्ठ भ्राता ) थे । कर्णामत की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि का गंगासागर पर्यन्त, दक्षिण देश में, गुजरात में मालवा प्रौर मेवाड़ में यश और प्रतिष्ठा थी। वे अपने समय के सुयोग्य विद्वान थे और १७वीं शताब्दी के अच्छे कवि थे। आपकी इस समय तीन रचनाएं उपलब्ध हैं, मुनिसुव्रतपुराण-कर्णामृत पुराण और षोडशकारण व्रतोद्यापन। मुनिसुव्रत पुराण-इसमें जैनियों के २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रत की जीवन गाथा अंकित की गई है। मंगल सहोदर कवि कृष्ण ने इस पुराण का निर्माण वि० सं० १६८१ के कार्तिक शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के अपराण्ह काल में कल्पवल्ली नगर में कर समाप्त किया है। इन्दष्टषटचन्द्र मितेऽथ वर्षे (१६८१) श्री कातिकास्ये धवले च पक्षे। जीवे त्रयोदश्यपरान्हया मे कृष्णेन सौख्याय विनिमितोऽयं ॥९६ कवि ने अपने को लोहपत्तन का निवासी और हर्ष वणिक का पुत्र बतलाया है। और कल्पवल्ली नगर में ब्रह्मचारी कृष्ण ने ३०२५ पद्यों में इस ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि उसके पुष्पिका वाक्य से स्पष्ट है : इति श्री पुण्यचन्द्रोदये मुनिसुवत पुराणे श्रीपूरमल्लां के हर्ष वीरिका देहज श्री मंगलदासाग्रज ब्रह्मचारीश्वर कृष्णदास विरचिते रामदेव शिवगमनं त्रयोविंशतितमः सर्गः समाप्तः । कर्णामृत पुराण-इसमें कर्ण राजा के चरित का वर्णन किया गया है। यह दूसरी रचना है। कवि ने इसे वि० सं० १६८८ में मालव देश को तिलक पुरी के पार्श्वनाथ मन्दिर में माघ महीने में पूर्ण किया है । इस ग्रन्थ की रचना में ब्रह्मवर्धमान ने सहायता पहुंचायी थी, जो इनके शिष्य जान पड़ते हैं। षोडशकारण व्रतोद्यापन-इसमें षोडशकारणव्रत की विधि और उसके उद्यापन का वर्णन किया गया कि केशवसेन या कृष्ण ने इसे वि० सं० १६९४ (सन् १६३७) में मगशिर शुक्ला सप्तमी के दिन रामनगर में बना कर समाप्त किया है। वेवनंद रसचन्द्रवत्सरे (१६६४) मार्गमासि सितसप्तमी तिथौ। रामनामनगरे मया कृताान्य-पुण्यनिवहाय सूरिणा ।१४ इति प्राचार्य केशवसेन विरचितं षोडशकारण व्रतोद्यापनं संपूर्णः इसके अतिरिक्त कवि की अन्य कृतियां भी अन्वेषणीय हैं। कवि का समय विक्रम की १७वीं शताब्दी है। १. लेलिहान-वसु-षड़ विधुप्रमे (१६५८) वत्सरे विविध भाव संयुतः। • एष एव रचितो हिताय में ग्रन्थ प्रात्मन इहाखिलागिनाम् ।। जैन ग्रन्थ प्रश० भा०११०५५

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