Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 552
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ था, प्रखण्ड प्रतापी, स्वजनों का विकासी प्रोर पूत्रां से अलंकृत था। यथा नपति सदसि मान्यो यो ह्यखण्ड प्रतापः, स्वजन जनविकासी सप्ततत्त्वावभासी। विमल गुणनिकेनो म्रात पत्रो समेतः, स जयति शिवकाम: साध टोडरुत्ति नामा ॥ कवि ने इस ग्रन्थ को पूरा कर जब साहू टोडरमल के हाथ में दिया तब उसने उसे अपने शिर पर रखकर कवि माणिक्य राज का खूब आदर सत्कार किया। उसने कवि को सुन्दर वस्त्रों के अतिरिक्त ककण कुण्डल और मुद्रिका प्रादि प्राभूषणों से भी अलंकृत किया था। उस समय गुणी जनों का आदर होता था। किन्तु आज गुणी जनों का निरादर करने वाले तो बहुत है किन्तु गुण ग्राहक बहुत ही कम हैं ; क्योंकि स्वार्थ तत्परता ओर अहकार ने उसका स्थान ले लिया है। अपने स्वार्थ तथा कार्य की पूर्ति न होने पर उनके प्रति आदर की भावना उत्पन्न हो 'गुण न हिरानो किन्तु गुण ग्राहक हिरानो' की नीति के अनुसार खेद है कि आज टोडरमल ने गण ग्राहक धर्मात्मा श्रावकों की संख्या विरल है-वे थोड़े हैं। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १५५६ फाल्गुन शुक्ला हवीं के दिन पूर्ण की हैं। कवि तेजपाल यह मूलसंघ के भट्टारक रत्नकीति भुवनकीति, धर्मकीति, और विशालकीति की ग्राम्नाय का विद्वान था। वासवपुर नामक गांव में वस्सावडह वंश में जाल्हड नाम के एक साहु थे। उनके पुत्र का नाम मूजउसाह था। जो दयावंत और जिनधर्म में अनुरक्त रहता था। उसके चार पुत्र थे-रणमल, बल्लाल, ईसरार पोल्हण । ये चारों भाई खण्डलवाल कुल के भूपण थे। प्रस्तुत रणमल साह के पुत्र ताल्य साहु हुए। उनका पून कवि तेजपाल था। कवि के तीन खण्डकाव्य अपभ्रश भाषा में रचे गए हैं, जो अभी अप्रकाशित है। कवि का समय विक्रम की सोलहवी शताब्दी का पूर्वार्ध है। कवि की तीन रचनाओं के नाम सभवणाह चरिउ, वराग चरिउ, आर पाराणाह चरिउ है। १ संभवणाह चरिउ इस ग्रन्थ में छह संधियां और १७० कडवक हैं, जिनमें जैनियों के तीसरे तीर्थकर सभवनाथ का जीवन परिचय दिया गया है। रचना संक्षिप्त और वाह्याडंबर से रहित है। इस खण्ड काव्य में तीर्थकर चरित को सीधे सादे शब्दों में व्यक्त किया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ की रचना में प्रेरक अग्रवाल वंशो साह थील्हा है जिनका गोत्र मित्तल था, और जो श्रीप्रभनगर के निवासी थे । थील्हा साह लखमदेव के चतुर्थ पुत्र थे। इनकी माता का नाम महादेवा था और धर्मात्नी का नाम कोल्हाही था, दूसरी भार्या का नाम आसाही था। जिससे त्रिभुवनपाल और रणमल नाम के दो पुत्र हुए थे। साह थील्हा के पाच भाई और थे, जिनके नाम 'खि उसी, होल्ल दिवमी मल्लिदाम, और कुन्थदास हैं। ये सभी भाई धर्मनिप्ठ, नीतिमान तथा जैनधर्म के उपासक थे। लखमदेव के पितामह साह होल ने जिनविम्ब प्रतिष्ठा कगई थी, उन्हीं के वंशज थील्हा के अनुरोध से कवि तेजपाल ने संभवनाथ चरिउ की रचना भादानक देश के श्रीप्रभनगर में दाउद शाह के राज्य काल में की थी। ग्रन्थ रचना का समय संभवतः १५०० के आस-पास का होना चाहिये। २ वरांग चरिउ दूसरी रचना 'वरांगचरिउ' है, जिसमें चार संधियां है। उनमें राजा वराग का जीवन-परिचय अकित किया गया है । राजा वरांग यदुवशी तीर्थकर नेमिनाथ के शासन काल में हुए हैं। राजा वराग का चरित बड़ा सुन्दर रहा १. "विक्कमरायहं ववगय काले, ले समुणीस विसरअकाले। पण रहसइ गुण्णासिय उरवाले, फागुण चंदिण पक्खि ससिवालें। एवमी मुहणक्खित्तु सुहवाले, सिरि पिरथी चन्दु पसाये सुंदरें ॥" -नागकुमार चरित प्र०

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