Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 555
________________ १५वीं, १६वीं, १७वीं और १५वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५२१ कवि ठकुरसी प्रस्तुत कवि चाटसू (वर्तमान चम्पावती) नगरी के निवासी थे। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र 'प्रजमेरा' था। ठकुरसी के पिता का नाम 'घेल्ह' था जो कवि थे। इनकी कविता मेरे अवलोकन में नहीं पाई, वि ने 'पंचेन्द्रिय वेलि' के प्रतिम पद के 'कवि-घेल्ह सुतन गुण गाऊँ' वाक्य में उन्हें स्वयं कवि ने सूचित किया है। कवि के पुत्र का नाम नेमिदास था, जिसने मेघमाला व्रत को भावना की थी । कवि की रचनायों का काल सं० १५७८ से १५८५ है । मेघमाला वय कथा अपभ्रंश भाषा में रची गई है, किन्तु शेष रचनाएं हिन्दी भाषा के विकास को लिये हुए हैं । कृपण चरित्र, पंचेन्द्रिय वेल, नेमि राजमती वेल और जिन चउवीसी। मेघमाला व्रत कथा-इसमें ११५ कडवक है जो लगभग २१५ श्लोंकों के प्रमाण को लिये हुए हैं । इस मेघमालावत के अनुष्ठान की विधि और उसके फल का वर्णन किया है। इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद मास की प्रतिपदा से किया जाता है। व्रत के दिन उपवास पूर्वक जिनपूजन अभिषेक, स्वाध्याय और सामायिक प्रादि धार्मिक अनुष्ठान करते हुए समय व्यतीत करना चहिए । इस व्रत को पांच प्रतिपदा, और पांच वर्ष तक सम्पन्न करना चाहिए । पश्चात उसका उद्यापन करे । यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगने समय तक व्रत करना चाहिए। इस व्रत का अनुष्ठान चाटस (पम्पावती) नगरी के श्रावक-श्राविकाओं ने सम्पन्न किया था। उस समय राजा रामचन्द्र का राज्य था। वहाँ पार्श्वनाथ का सुन्दर जिनालय था और तत्कालीन भट्टारक प्रभाचन्द्र भी (जिनकी दीक्षा सं १५७१ में हई थी) मौजद थे। जो गणधर के समान भव्यजनों को धर्मामत का पान करा रहे थे। वहाँ खण्डेलवाल जाति के अनेक श्रावक रहते थे। उनमें पं० माल्हा पुत्र कवि मल्लिदास ने कवि ठकुरसी को मेघमाला व्रत की कथा के कहने की प्रेरणा की थी। वहाँ के श्रावक सदा धर्म का अनुष्ठान करते थे। हाथुह साह नाम के एक महाजन और भट्टारक प्रभाचन्द्र के उपदेश से कवि ने 'मेघमाला' व्रत कैसे करना चाहिए, इसका सक्षिप्त वर्णन किया। वहाँ तोषक, माल्हा और मल्लिदास प्रादि विद्वान भी रहते थे। थावकजनों में प्रमुख जीणा, ताल्ह, पारस, नेमिदास, नाथूसि, भुल्लण और वडली आदि ने इस व्रत का अनुष्ठान किया था। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना सं० १५८० प्रथम श्रावण शुक्ला छठ के दिन पूर्ण किया था। कवि ने सं० १५७८ में 'पारस श्रवण सत्ताइसी' नाम की एक कविता लिखी थी, जो एक ऐतिहासिक घटना को प्रकट करती है। और कवि के जीवन काल में घटी थी, उसका कवि ने आँखों देखा वर्णन किया है। कवि की सभी रचनाएं लोकप्रिय और सरल है । ब्रह्म जीबंधर यह माथर संघ विद्यागण के प्रख्यात भट्टारक यशकीर्ति के शिष्य थे। आप संस्कृत और हिन्दी भाषा के सयोग्य विदान थे। प्रापकी संस्कृत भाषा की दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। यद्यपि वे लघुकाय हैं किन्तु महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें पहली कृति 'चतुर्विशति तीर्थकर स्तवन जयमाल हैं'। इसका अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि जीबंधर कत भाषा में सन्दर कविता कर सकते थे। पाठक पाश्र्वनाथ और महावीर स्तवन-विषयक निम्न दो पद्य पढ़ें. जो भावपूर्ण और सरस एवं सरल हैं : "विधुरित विघ्नं पाश्वजिनेशं दुरित तिमिरभर हनन दिनेशम् । प्रज्ञान दम तीब्रकुठारं वांछित सुखदं करुणाधारं ॥ 'जीवंधर' नुत-चरण सरोजं विकसित निर्मल कीतिपयोजम । कल्याणोवयकवलोकन्वं, वन्वे वीरं परमानन्दम् ॥ दूसरी संस्कृत रचना 'श्रुतजयमाला' है, जिसमें प्राचाराङ्ग प्रादि द्वादश अंगों का परिचय दिया गया है। १. देखो अनेकान्त वर्ष १५ किरण ४ में प्रकाशित 'चतुर्विशति तीर्थकर-जयमाला ।' सन् १९६२ ।

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