Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 554
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ५२० प्राप्त करने का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने संवत् १५३१ पौष शुक्ला त्रयोदशी बुधवार के दिन भीमसेन के प्रसाद से बना कर समाप्त की थी। यशोधरचरित - यह कवि की तीसरी रचना है, इसमें राजा यशोधर और चद्रमती का जीवन परिचय अंकित किया गया है । इसमें १०१८ श्लोक हैं । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने संवत् १५३६ में मेदपाठ (मेवाड़) के गोंढिल्य नगर के शीतल नाथ मन्दिर में पौष कृष्णा पंचमी के दिन बनाकर समाप्त की है। इनके अतिरिक्त कवि की हिन्दी राजस्थानी भाषा की कई रचनाएं हैं। उनमें यशोधर रास १५३६ में बनाया । ऋषभनाथ की धूल, त्रेपन क्रिया गीत आदि रचनाएं भी इनकी बनाई हुई कही जाती हैं। सोमकीर्ति कवि १६वीं शताब्दी के द्वितीय चरण के विद्वान हैं । प्रजित ब्रह्म 6 मूलसंघ के भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे । यह गोल शृंगार (गोल सिंघाडे ) वंश में उत्पन्न हुए। थे 1 इनके पिता का नाम बीरसिंह और माता का नाम बीधा था । यह भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति के दीक्षित शिष्य थे और ब्रह्मजित के नाम से लोक में प्रसिद्ध थे। इन्होंने विद्यानन्दि के प्रदेश से 'हनुमान' चरित की रचना दो हजार श्लोकों में की थी । हनुमान पवनंजय का पुत्र था, बड़ा बलवान तथा वीर पराक्रमी था । इसकी माता का नाम अंजना था, जो राजा महेन्द्र की पुत्री थी । कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, किन्तु ग्रन्थ के रचना स्थल का उल्लेख किया है । और हनुमान के चरित को पाप का नाशक बतलाया है । कवि ने इस चरित की रचना भृगुकच्छ (भडौच) के नेमिनाथ जिनमन्दिर में की है । कवि ने ग्रन्थ में कुन्दकुन्द, जिनसेन, समन्तभद्र, अकलंक, नेमिचन्द्र, और पद्मनन्दि आदि पूर्ववर्ती श्राचार्यो का स्मरण किया है। इस ग्रंथ की सं० १५६६ की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति लाला विलासराय पंसारी टोला इटावा के मंदिर शास्त्रभंडार में मौजूद है। इससे इस ग्रंथ की रचना उससे पूर्व ही हुई है । कल्याणालोचना - नाम की एक रचना उपलब्ध , जिसमें ५४ पद्यों में आत्मकल्याण की आलोचना की गई करते हुए अपने से जो दुष्कृत बने हैं 'मिच्छामे दुक्कडं हुज्ज' वाक्यों द्वारा परमात्मा का ही शरण है, अन्य कोई है । ग्रन्थ में श्रात्मसम्बोधन रूप से अपनी भूलों अथवा अपराधों की विचारणा जिन-जिन जीवादिकों की जिस तिस प्रकार से विराधना हुई है, उसके लिये खेद व्यक्त किया गया है। स्वभावसिद्ध ज्ञान दर्शनादि रूप एक आत्मा को एक शरण नहीं है । 'प्रणो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा' शब्दों द्वारा उसकी घोषणा की है। यह रचना भी अजित ब्रह्म की है । सभक्तः यह रचना इन्हीं प्रजित ब्रह्म की है। इन प्रजित ब्रह्म का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है । १. जैनेन्द्र शासन सुधारस पानपुष्टो देवेन्द्रकीति यतिनायक नैष्ठिकात्मा । तच्छिय संयम धरेण चरित्रमेतत् सृष्टं समीरणसुतस्य महद्धिकस्य ||१|| २. गोला श्रृंगारवंशे नभसि दिनमरिण वीरसिंहो विपश्चित् । भार्या वीधा प्रतीता तनुरूह विदितो ब्रह्मदीक्षाश्रितोऽभूद् । तेनोच्चरेष ग्रन्थः कृति इति सुतरां शैलराजस्य सूरेः । श्री विद्यानन्द देशात् सुकृतविधिवशात्सर्वसिद्धि प्रसिद्धयं ॥ ६६ ३. मंवत्सरे सत्तिथि संज्ञके वे वर्षे ऽत्र त्रिशंक युते (१५३१ ) पवित्रे । विनिर्मितं पौषसुदेश्च (?) तस्यां त्रयोदशीया बुधवार युक्ता ॥ १६९ ४. वर्षे षट्त्रिश संख्ये तिथि परगरणना युक्त संवत्सरे ( १५३६) वं । पंचम्यां पौष कृष्णे दिनकर दिवसे चीत्तरस्थे हि चन्द्र । गोंढिल्यां मेदपाटे जिनवरभवने शीतलेन्द्रस्य रम्ये । सोमादि कीर्तिनेदं नृपवर चरितं निर्मितं शुद्धभक्त्या ।। ६२ - हनुमान चरित प्रशस्ति - हनुमान चरित प्रशस्ति — जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भाग १ पृ० ६१ - जैन ग्रन्थ प्र० सं० भा० १ पृ० १०६

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