Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 534
________________ ५०० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ सिद्धचक्र कथा इसमें सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य का वर्णन है जिसे उन्होंने सम्यग्दृष्टि श्रावक जालाक के लिए कल्याणकारी कथा का चित्रण किया था। इस कथा की अन्तिम प्रशस्ति के निम्न वाक्य में-'श्री पदर पट्टे शभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः' श्री सिद्धचक्रस्य कथावतारं चकार भव्यां बुजभानुमाली ॥१॥ भ० शुभचन्द्र का समय विक्रम की १५वीं शताब्दी का तृतीय चतुर्थचरण है। FT रत्नकोति यह बलात्कारगण के विद्वान थे। यह भावकीति और अनंतकीति के शिष्य थे। इनकी एकमात्र कृति पुष्पांजलि व्रतकथा है जो अपभ्रश भापा की रचना है। कथा में कवि ने रचनाकाल और रचनास्थल का कोई उल्लेख नहीं किया। इसका कारण रचना काल का निश्चय करना कठिन है। संभव है १५वीं शताब्दी की रचना हो। पंडित योगदेव यह कनारा जिले के कुम्भनगर के निवासी थे। पंडित योगदेव राजा भजबली भोमदेव के द्वारा राज्यमान्य थे। वहां की राज्यसभा में सम्मान प्राप्त था। इनकी एक कृति तत्त्वार्थसूत्र की टोका 'सुखबोधवृत्ति' है । ग्रन्थ में गुरु परम्परा और रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है। इस कारण इनका समय निश्चित करना कठिन है। ___ अपभ्रश भाषा की 'सुव्रतानुप्रेक्षा' नाम की २० कडवक की रचना है जिसमें मुनि सुव्रत को बारह भावना का वर्णन है। जिसे उन्होंने कभनगर में रहते हए विश्वसेन मुनि के चरण कमलों की भक्ति से रचा है। इस ग्रन्थ को यह प्रतिलिपि सं० १५८५ बैशाख वदि १३ के दिन मैमूर के पद्यप्रभ चैत्यालय में की गई है। इससे इतना तो सुनिश्चित है कि पंडित योगदेव उससे पहले हुए हैं। संभवत: यह १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं । कवि जल्हिग इन्होंने अपना कोई परिचय, गुरुपरम्परा और 'रचना' काल नहीं दिया जिससे उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। इनकी एकमात्र कृति, 'अनुपहारास' है जिसमें अनित्य, प्रशरण संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, प्रास्रव, संवर, निर्जरा लोक बोधि दुर्लभ और धर्म। इन बारह भावनाओं का स्वरूप दिखलाते हुए उनके बार-बार चिन्तवन करने की प्रेरणा की है। ये भावनाएं देह-भोगों को प्राशक्ति को दर करती हई उनके प्रति अरुचि उत्पन्न करती हैं और प्रात्मस्वरूप की पोर आकृष्ट करती हैं। इसीलिये इन्हें माता के समान हितकारी बतलाया है । कवि जल्हिग कब हुए, यह रचना पर से ज्ञात नही होता। संभवतः इनका समय विक्रम की १४वीं या १५वीं शताब्दी है। कवि कहता है कि जो इनको भावना भाता है वह पाप-पास को दूर करता हया परम सुख प्राप्त करता है। साथ में कवि कहता है कि मैने निज शक्ति से इसकी रचना की है, उसमें जो कुछ हीन या अधिक कहा गया हो, या पद प्रक्षर मात्रा से हीन हो, तो उसका विगत-मल मूनीश्वर शोधन करें। नेमचन्द यह माथुर संघ के विद्वान थे। इनकी रची हुई 'रविवयकहा' (रवि व्रत कथा) है जिसमें रविवार के व्रत की विधि और उसके फल प्राप्त करने वाले की कथा दी गई है। रचना में गुरुपरम्परा और रचना काल का कोई उल्लेख नहीं है । इससे निश्चित समय बतलाना शक्य नहीं है। कथा की भाषा साहित्यादि पर से १५वीं शताब्दी की रचना जान पड़ती है। अन्य साधन सामग्री के अन्वेषण से समयादिका निश्चय हो सकेगा। १. सम्यग्दृष्टि विशुद्धात्मा जिनधर्म च वत्सलः । जालाकः कारयामास कथा कल्याण कारिणि ॥२

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