Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 549
________________ १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि ५१५ थी। इसने मांडवगढ़ को खूब मजबूत बनाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाई थी। उसी के वंश में गयासुद्दीन, हुआ, जिसने मांडवगढ़ से मालवा का राज्य सं० १५२६ से १५५७ अर्थात् सन् १४६६ से १५०० ई० तक किया है । इसके पुत्र का नाम नसीरशाह था, और इसके मन्त्री का नाम पुजराज था जो वणिक और वैष्णव धर्मानयायी था, संस्कृत भापा का अच्छा विद्वान कवि और राजनीति में चतुर था । जैन धर्म तथा जैन विद्वानों से प्रेम रखता था। भट्टारक श्रुतकीति को तीन कृतियां पूर्ण और चौथी कृति अपूर्णरूप में उपलब्ध है। हरिवंशपुराण परमेष्ठी प्रकाशसार और जोगसार। चौथी कृति का नाम 'धर्म परीक्षा है, जो डा० हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट् को प्राप्त हुई है। हरिवंशपुराण इसमें ४७ सन्धियां है जिनमें २२वें तीर्थकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। प्रसंग वश उसमें श्रीकृष्ण प्रादि यदुवंशियों का सक्षिप्त जीवन चरित्र भी दिया हना है। इस ग्रन्थ की दो प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं। एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन पारा में हैं, और दूसरी पामेर के भटटारक महेन्द्र कीति के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, जो सम्वत् १६०७ की लिखी हई है और जिसका रचना काल सम्वत् १५५२ हैं । जो जेरहट नेमिनाथ मन्दिर में गयासुद्दीन के राज्य काल म रचा गया है। पारा की प्रति सं० १५५३ की लिखी हुई है और जिसमें ग्रन्थ के पूरा होने का निर्देश है, जो मण्डपाचल (मांड) दुर्ग के शासक गयासुद्दीन के राज्य काल में दमोवा देश के जेरहट नगर के महाखान और भोजखान के समय लिखी गई है । ये महाखान भोजखान जेरहट नगर के सुबेदार जान पड़ते है। वर्तमान में रहट नाम का एक नगर दमोह के अन्तर्गत है। दमोह पहले जिला रह चुक बहुत सम्भव है कि दमोह उस समय मालव राज में शामिल हा । कवि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है-नन्दिसघ बलात्कारगण, वागेश्वरी (सरस्वती) गच्छ में, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, विद्यानन्दि, पद्मनन्दि (द्वितीय), देवन्द्र कीति (द्वितीय), त्रिभुवन कीर्ति, श्रुतकीर्ति । परमेष्ठी प्रकाशसार इस ग्रन्थ की एकमात्र प्रति आमेर ज्ञानभण्डार में उपलब्ध हई है जिसके आदि के दो पत्र और अन्त का एक पत्र नहीं है, पत्र संख्या २८८ है। ग्रन्थ में सात परिच्छेद या अध्याय हैं जिनकी श्लोक संख्या तीन प्रमाण को लिए हए है। ग्रन्थ का प्रमुख विपय धर्मोपदेश है, इसमें सष्टि और जीवादि तत्वों का सून्दर विवेचन कडवक और घता गैली में किया गया है। कवि ने इस ग्रन्थ को भी उक्त माडवगढ़ के जेरहट नगर के प्रसिद्ध नेमीश्वर जिनालय में बनाया है । उस समय वहां गयासुद्दीन का राज्य था और उसका पुत्र नसीरशाह राज्य कार्य में अनु १. See Combridge Shorter History of india P.309 २. संवतु विक्कम सेरण गरेसई, सहसु पंचसय बावरणसेसई। मडवगडु बर मालवदेसई, साहि गयासु पयावअसेसई। णयर जेरहट जिणिहर चंगउ, मिणाह जिणबिव अभंग। -जैन ग्रन्थ प्रश. भा० २ पृ.' ३. सं० १५५३ वर्षे ववार वदि द्वजसुदि (द्वीतीय) गुरौ दिने अद्येह मण्डपाचलगढ़ दुर्गे सुलतान गयासुद्दीन राज्ये प्रवर्तमाने श्री दमोवादेशे महाखान भोजखान प्रवर्तमाने जेरहट स्थाने सोनी श्री ईसुर प्रवर्तमाने श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दि देवतस्य शिष्य मण्डलाचार्य देविंदकीतिदेव तच्छिष्य मण्डलाचार्य श्री त्रिभूवनकोति देवान् तस्य शिष्य श्रुतकीति हरिवंश पुराणे (णे) परिपूर्ण कृतम् ........" -आरा प्रति

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