Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 539
________________ १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५०५ रचनाएं प्रथम ज्ञानभूषण की निम्न रचनाएँ उपलब्ध हैं-पूजाप्टक टीका, तत्वज्ञानतरंगिणी स्वोपज्ञवृत्ति सहित मादिनाथ फाग, नेमिनिर्वाण पंजिका, परमार्थदेश, सरस्वती स्तवन । इन सब रचनात्रों में पूजाष्टक टीका सबसे पहली कृति जान पड़ती है ; क्योंकि कवि ने उसे मुनि अवस्था में वि० सं० १५२८ में डुगरपुर के प्रादिनाथ चैत्यालय में ब यह ज्ञानभूषण की स्वयं रचित पूजामों की स्वोपज्ञ टीका है। यह दश अधिकारों में विभाजित है । इसकी एक लिखित प्रति सम्भवनाथ मन्दिर उदयपूर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है। उसमें पूजाप्टक टीका का नाम 'विद्वज्जनवल्लभा' बतलाया है। तत्वज्ञानतरंगिणी स्वोपज्ञटीका सहित यह ग्रन्थ १८ अध्यायों में विभक्त हैं। इसमें शुद्ध चिद्र प का अच्छा कथन दिया हुआ है। ग्रन्थ अध्यात्म रस है । ग्रन्थ रोचक और मुमुक्षुत्रों के लिये उपयोगी हैं । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने उस समय की है जब वे भट्टारक पद से निःशल्य हो गये थे। उस समय ध्यान और अध्ययन दो ही कार्य मुख्य रह गये थे। यह ग्रथ हिन्दी अर्थ के साथ प्रकाशित हो चका है। पाठकों की जानकारी के लिये उसके कुछ पद्य हिन्दी भावार्थ के साथ दिये जाते हैं स्वकीये शुद्धचिन्द्रपे सचिर्या निश्चयेन तत् । सहर्शनं मतं 'तज्ज्ञ: कर्मन्धन हताशनम् ॥८-१२ जिसकी शुद्ध चिद्र प: में रुचि होती है उसे तत्वज्ञानियों ने निश्च र सम्यग्दर्शन बतलाया है, वह सम्यग्दर्शन कम ईंधन के जलाने के लिये अग्नि के समान है। मैं शुभ चैतन्य स्वरूप हूं ऐसा स्मरण करते ही शुभाशुभ कर्म न जाने कहाँ चले जाते हैं । चेतन अचेतन परिग्रह और रागादि बिकार हो विलीन हो जाते हैं। यह मैं नहीं जानता। क्व यांति कर्माणि शुभा शुभानि क्व यांति संगाश्चिदचित्स्वरूपः । क्व यान्ति रागादय एव शुद्ध चिद्र पकोहं स्मरणे न विद्मः ॥८-२ इस शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के लिए ज्ञानी जन निस्पृह होकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर एकान्त पर्वतों की गुफाओं में निवास करते हैं। संगं विमुच्य विजने वसंति गिरि गह्वरे। शद्ध चिद प सम्प्राप्त्य ज्ञानिनोऽन्यत्र निःस्पृहा ॥५-३ हे प्रात्मन् ! तू उस शुद्ध चिद्र प का स्मरण कर, जिसके स्मरणमात्र से शीघ्र ही कर्म नष्ट हो जाते हैं। तं चिद्र पं निजात्मानं स्मर शुद्ध प्रतिक्षणं। यस्य स्मरण मात्रण सद्यः कर्मक्षयो भवेत् ॥१३-२ कवि ने तत्त्वज्ञान तरगिणी की रचना सं० १५६० (सन् १५०३) में बनाकर समाप्त की है। আদিনাথ কাল यह ग्रन्थ ५६१ श्लोकों की संख्या को लिए हुए है, जिसमें २२६ पद्य संस्कृत भाषा के हैं और २६२ पद्य हिन्दी भाषा के हैं । इन सब को मिला कर ग्रन्थ की ५६१ श्लोक प्रमाण संख्या पाती है। समेिव नवोन षट्शहमितान (५६१) श्लोकान्विवुध्याऽन्नव । शुद्धं ये सुधियः पठन्ति सवहं ते पाठयन्त्वावरात् ॥" १. इति भट्टारक श्री भुवनकीर्ति शिष्य मुनि ज्ञानभूषण विरचितायां स्वकृताष्टक दशक टीकायां बिद्वज्जन वल्लभा संज्ञायां नन्दीश्वर द्वीपजिनालयाचंन वर्णनीय नामा दशमोऽधिकारः।।

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