Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 530
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इसका अर्थ पं० दीपचन्द पाण्डया ने इस प्रकार दिया है- मूली प्रादि हरे जमीकंद, नाली (कमल प्याज पाटि की नाली भिस.. कमल की जड़, लहसुण, लुम्बी शाक (लोकी शाक १) करड कंसभी की भाजी ) कलिंग (तरबजा १) सरण कन्द आदि कन्द, पुष्प हरे फूल, सब प्रकार के अनाज (बहुत दिनों का बना पाचार मुरब्बा) इनके खाने से दर्शन भग होता है । इसमें लुम्बी शाक का अर्थ लोकी (घोया) दिया गया है। लोकी को कहीं भी प्रभक्ष पदार्थों में नही गिनाया गया। सम्भव है ग्रन्थकार का इससे कोई दूसरा ही अभिप्राय हो, क्योंकि लोकी जिसे घिया भी कहा जाता है, वह अभक्ष नहीं है इसी तरह सेम की फली भी अभक्ष नही है। ग्रम की तुलना पर से स्पष्ट है, कि प्रस्तुत रचना पं० पाशाधर के बाद की है । सस्कृत भाव संग्रह के कर्ता वामदेव या इन्द्र वामदेव के गुरु लक्ष्मी चन्द्र थे। पर इनके सम्बन्ध में अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं हैं। डा. ए. नपाध्ये ने मावय धम्म दोहा का कर्ता १६वीं शताब्दी के लक्ष्मीचन्द को नही माना, उसका कारण ब्रह्म थतसागर द्वारा सावयधम्म दोहा के पद्यों को उद्धत करना है । अतः लक्ष्मीचन्द्र १६वीं शताब्दो के नहीं हो सकते । उन्होंने उसे वर्ती बतलाया है। । मेरी राय में यह ग्रन्थ १४वीं शताब्दी या उसके पास-पास को रचना होनी चाहिये । प० दीपचन्द पाण्डया ने सावयधम्म दोहा का रचना काल विक्रम की १६वीं शताब्दी का प्रथम चरण बतलाया है । अतः निहासिक प्रमाणों के आधार पर लक्ष्मीचन्द का समय निश्चित करना जरूरी है, प्राशा है विद्वान इस ओर अपना ध्यान दगे। देहानप्रेक्षा -में ४७ दोहा हैं, उनमें कवि ने अपना नाम उल्लिखित नहीं किया, किन्तु सची में उसका कर्ता 'लक्ष्मीचन्द्र' लिखा । यह दोहा नुत्प्रेक्षा अनेकान्त वर्ष १२ की १०वी किरण में प्रकाशित है । दोहा सुन्दर और प्रत्येक भावना के स्वरूप के विवेचक है। सावय धम्म दोहा से अनुप्रेक्षा के दोहा अधिक सुन्दर व्यवस्थित जान पड़ते है पर रचना काल और रचना स्थल तथा लेखक के नाम से रहित होने के कारण उस पर विशेष विचार करना शक्य नही है। साथ ही यह निर्णय भी वांछनीय है कि दोनों के कर्ता एक ही हैं; या भिन्न-भिन्न । कवि हल्ल या हरिचन्द मूलसंघ, बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ के भट्टारक प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य और भट्टारक पद्मनन्दी के शिष्य थे । अच्छे विद्वान और कवि थे इनकी दो कृतियां उपलब्ध है। णिक चरिउ या वढमाणकव्व और मल्लिणाहकव्व । कर्ता ने रचनाकाल नहीं दिया। फिर भी अन्य साधनों से कवि का समय विक्रमी की १५वीं शताब्दी है। रचनाएँ श्रेणिक चरित या वर्द्धमानकाव्य में ११ संधियां हैं, जिनमें अंतिम तीर्थकर वर्द्धमान का जीवन परिचय अंकित किया गया है । कवि ने यह ग्रन्थ देव राय के पुत्र 'होलिवम्म' के लिये बनाया है । साथ ही उनके समकालीन द्वान वाल मगध सम्राट् बिम्बसार या थेणिक की जीवन गाथा भी दी हुई है। यह राजा बड़ा प्रतापी और राजनीति में कशल था। इसके सेनापति थप्ठि जंबकुमार थे। इस राजा की पट्ट महिषी रानी चेलना थी, जो वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष लिच्छवि राजा चेटक की विदुषी पुत्री थी। जो जैन धर्म संपालिका और पतिव्रता थी। श्रेणिक प्रारम्भ में अन्य धर्म का पालक था, किन्तु चेलना के सहयोग से दिगम्बर जैन धर्म का भक्त और भगवान महावीर की सभा का प्रमुख श्रीता हो गया था। प्रस्तुत ग्रन्थ देवराय के पुत्र संधाधि पहोलिवम्म के अनुरोध से रचा गया है। और गन्थ का सं० १५५० लिखी हुई प्रति वधी चन्द्र मंदिर जयपुर के शास्त्र भंडार में मौजद है। १. यह लक्ष्मीचन्द्र श्रुतसागर के समका तीन लक्ष्मीचन्द्र से जुदे हैं। परमात्म प्रकाश प्रस्तावना पृ० १११ २. ग्रन्थकार का नाम लक्ष्मीचन्द्र है और उनका समय ग्रन्थ की उपलब्ध प्रतियों और प्राप्त ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर विक्रम की-१६वीं शताब्दी का प्रथम चरण रहा है। सावय धम्मु दोहा, सम्पादकीय पृ० १२ इयसिरि वड्ढमारण कव्वे पयडिय चउवग्गभरिए सेणियअभयचरित्ते विरइय जयमित्तहल्ल सुकयन्तो भवियण जणमण हरणे संघाहिव होलिवम्म कण्णाहरणे सम्मइजिण रिणवाण गमणो णाम एयारहमो संधि परिच्छेओ समतो।।

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