Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 523
________________ १५वौं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के पाचार्य, भट्टारक और कवि ४८६ किया और भट्टारक रत्नकीति के पट्ट पर उन्हें प्रतिष्ठित किया। भट्टारक प्रभाचन्द्र ने मुहम्मदशाह तुगलक के मन को अनुरजित किया था और विद्या द्वारा वादियो का मनोरथ भग्न किया था । मुहम्मदशाह ने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है। भट्टारक प्रभाचन्द्र का भ० रत्नकोति के पट्ट पर प्रतिप्ठि न होने का समर्थन भगवती पागधना की पजिका टीका की उस लेखक प्रशिस्ति से भी होता है जिसे म०१४१६ में इन्ही प्रभाचन्द्र के शिप्य ब्रह्मनाथराम ने अपने पढने के लिए दिल्ली के बादशाह फोराजशाह तुगलक के शासन काल में लिखवाया था। उसमें भ० रत्नकीति के पटट पर प्रतिष्ठित होने का स्पष्ट उल्लेख है। फीरोज शाह तुगलक ने सं० १४०८ मे १४४५ तक राज्य किया है। इससे स्पष्ट है कि भ० प्रभाचन्द्र स० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। कविवर धनपाल गुरु आज्ञा से सौरिपुरतीर्थ के प्रसिद्ध भगवान नेमिनाथ जिन को वन्दना करने के लिये मार्ग में इन्होने चन्द्रवाड नाम का नगर देखा, जो जन धन से परिपूर्ण ओर उत्त ग जिनालयों मे विभपित था वहा साह वासाधर का बनवाया हुआ जिनालय भी देखा और वहा के श्री अरहनाथ जिनकी वन्दना कर अपनो गर्दा तथा निदा को और अपने जन्म-जरा और मरण का नाश होने की कामना व्यक्त की। इस नगर में कितने ही ऐतिहासिक पुरुष हुए है जिन्होने जैनधर्म का अनुष्ठान करते हुए वहाँ के राज्य मत्री रहकर प्रजा का पालन किया है। कवि का समय १५ वी शताब्दी का मध्यकाल है। क्योकि कवि ने अपना बाहुबली चरित स० १४५४ में पूर्ण किया है। कवि की एक मात्र रचना 'बाहबली चरित' है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अठारह सन्धिया तथा ४७५ कडवक है। कवि कथा सम्बन्ध के बाद सज्जन दुर्जन का स्मरण करता हुआ कहता है कि 'नीम को यदि दूध मे सिचन किया जाय तो भी वह अपनी कटुता का परित्याग नही करती। ईख को यदि शस्त्र से काटा जाय तो भी वह अपनी मधुरता नहीं छोडती। उसी तरह सज्जन-दुर्जन भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। सूर्य तपता है और चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है। ग्रन्थ में आदि ब्रह्मा ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली का, जो सम्राट् भरत के कनिष्ठ भ्राता और प्रथम कामदेव से चरित दिया हना है। बाहबली का शरीर जहाँ उन्नत और सुन्दर था वहा वह बल पोरुप गे भी सम्पन्न था। वे डन्दिय विजयी और उग्र तपस्वी थे। वे स्वाभिमान पूर्वक जोना जानते थे, परन्तु पराधीन जीवन को मृत्यु गे कम नही मानते थे। उन्होंने भरत सम्राट् से जल-मल्ल और दृष्टि युद्ध में विजय प्राप्त की थी, परिणाम स्वरूप भाई का मन अपमान से विक्षुब्ध हो गया और बदला लेने की भावना से उन्होने अपने भाई पर चक्र चलाया, किन्त देवो. पनीत प्रस्त्र 'वंश-घात' नही करते । इसमे चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर वापिस लोट गया-वह उन्द कोई नुकसान न पहुंचा सका । बाहुबली ने रणभूमि में भाई को कधे पर से धारे मे नीचे उतारा पोर विजयी होने पर भी उन्हें ससार-दशा का बड़ा विचित्र अनुभव हुआ। १. तहि भव्वहि सुमहोच्छव विहि ।उ मिरिग्यणकित्ति पट्टे णिहियउ । महमद स हि मणु रजियउ, विज नहि वाइयमण भजियउ।" -बाहुबलिचरिउ प्रगति २. संवत् १४१६ वर्षे चैत्र मुदि पञ्चम्या सोमवासरे सकलगज शिरो मुकुटमाणिक्यमरीचि पिजीकृत चरण कमल पाट पीठम्य श्रीपीरोजसाहे सकलमाम्राज्यधुरी विभ्राणम्य समये श्री दिल्या थीदुन्दकुन्दाचार्यान्वये सररवनी गच्छे बलाकारगणे भट्टारक श्री रत्नकोति देव पट्टोदयाद्रि तरुणतरुणित्वमुर्वी कुर्वाण भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देव शिष्याणा ब्रह्म नाथराम इत्याराधना पंनिकाया ग्रथ आत्म पठनार्थ लिखापितम् । -आरा० पंजि० प्र० व्यावर भवन प्रति ३. णिबु कोवि जइ खीरहि मिचहि तो वि ण सो कुडवत्तणु मुचइ । उच्छू को वि जह सस्य खडइ, तो विण सो महुरत्तणु छडइ। दुज्जण-सुअण सहावे तप्परू, सूरु तवइ ससहरसीयरकरू। -बाहबली चरित प्रशस्ति

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