Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 521
________________ १५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ४८७ कर्मद्रुमोन्मीलन दिक्करीन्द्र सिद्धान्तपायोनिधिदृष्टपारं। षट् त्रिशदाचार्य गुणेः प्रयुक्तं नमाम्यहं श्री गुणभद्रसूरिम् ॥ श्रतमुनि ने अपना ‘परमागमसार' शक सं० १२६३ (वि० सं० १३६८) में रचा है। अतः टीकाकार सोमदेव उसके बाद के (१५वीं शताब्दी के ) विद्वान हैं। पद्मनाभ कायस्थ कवि पद्मनाभ का जन्म कायस्थ कुल में हुआ था। वह संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान थे, और जैनधर्म के प्रेमी थे। इन्होंने भट्टारक गुणकीति के उपदेश से पूर्व सूत्रानुसार यशोधर चरित या दयासुन्दरविधान नामक काव्य की रचना की थी। सन्तोप नाम के जैसवाल ने उनके इस ग्रन्थ को प्रशंसा की थी, और विजय सिंह के पुत्र पृथ्वीराज ने अनुमोदना की थी। प्रस्तुत यशोधर चरित्र में हसंधियाँ हैं जिनमें राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन-परिचय दिया गया है । यह ग्रन्थ वीरमदेव के राज्य में कुशराज के लिए लिखा गया था। कुशराज ग्वालियर के तोमर वंशी राजा वीरम देव का विश्वास पात्र मन्त्री था । यह राजनीति में चतुर और पराक्रमी शासक था। सन् १४०२ (वि० सं० १४५६) या उसके कुछ समय बाद राज्य सत्ता उसके हाथ में आई थी। इसने अपने राज्य की सूदढ व्यवस्था की थो । शत्रु भी इसका भय मानते थे । इसके समय हिजरी सन् ८०५ सन् १४०५ (वि० सं० १४६२) में मल्ल इकबाल खां ने ग्वालियर पर चढ़ाई की। परन्तु उसे निराश होकर लौटना पड़ा। फिर उसने दूसरी बार ग्वालियर पर घेग डाला, किन्तु उसे इस बार भी आस-पास के इलाके लट-पाट कर दिल्ली का रास्ता लेना पड़ा। कुशराज वीरमदेव का विश्वासपात्र महामात्य था, जो जैसवाल कुल में उत्पन्न हया था, यह राजनीति में दक्ष और वीर था। पितामह का नाम भल्लण और पितामही का नाम उदिता देवी था और पिता का नाम जनपाल और माता का नाम लोणादेवी था। कुशराज के ५ भाई और भी थे जिनमें चार बडे और एक छोटा था। हंसराज, सैराज, रैराज, भवराज, ये बड़े भाई थे। और क्षेमराज छोटा भाई था। इनमें कुशराज बड़ा धर्मात्मा और राजनीति में कुशल था। इसने ग्वालियर में चन्द्रप्रभ जिनका एक विशाल मन्दिर बनवाया था और उसका प्रतिष्ठादि कार्य बडे भारी समारोह के साथ सम्पन्न किया था। कुशराज की तीन स्त्रियाँ थीं रल्हो, लक्षण श्री १. वंशेऽभूज्जैसवाले विमलगुणनिषभूल्लणः साधु रत्नं, माधु श्री जैनपालो भवदुदितया स्तत्सुतो दानशीलः । जैनेन्द्राराधनेषु प्रमुदित हृदयः सेवकः सद् गुरुणा लोणाख्या सत्यशीलाऽजनि विमलमति जैनपालस्य भार्या ॥५ जाताः षट् तनयास्तयोः सुकृतिनोः श्री हंसराजोऽभवत् । तेपामाद्यत मस्ततस्तदनुजः सैराज नामाऽजनि । रैराजो भवराजकः समजनि प्रख्यात कीतिर्महा, साधु श्री कुशराज कस्तदनुच श्रीक्षेमराजो लघुः ॥६ जातः श्रीकुशराज एव सकलक्ष्मापाल चूलामणेः । श्रीमत्तोमर-वीरमस्य विदितो विश्वास पात्रं महान् । मंत्री मंत्र विचक्षणः क्षणभयः क्षीणारिपक्षः क्षणात्। क्षीणोमीक्षण रक्षण क्षममति जैनेन्द्र पूजारतः ॥७॥ स्वर्ग स्पद्धि समृद्धि कोति विमलश्चैत्यालयः कारितो, लोकानां हृदयंगमो बहुधश्चन्द्र प्रभस्य प्रभोः । ये नतत्समकालमेव हचिरं भव्यं च काव्यं तथा । साधु श्री कुशराज केनसुधिया कीर्तश्चिरस्थापकं ॥ -चनबन्ध प्रशस्ति भा० १५०६

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