Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 507
________________ १५वीं १६वीं १०वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ४७३ ने अपने रिट्ठमिचरिउ से पहले बनाई हुई अपनी निम्न रचनाओं के भी नाम दिये हुए हैं। महापुराण, भरत मेनापति चरित ( मेघेश्वर चरित) जसहरचरिउ ( यशोधरचरित) वित्तसार, जीवंधर चरिउ और पासचरिउ का नामोल्लेख किया है । ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, इसलिए यह निश्चित बतलाना तो कठिन है कि यह ग्रन्थ कब बना ? फिर भी अन्य सूत्रों से यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम की १५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण या १६वीं के प्रथम चरण मे रचा गया है । प्रस्तुत 'धणकुमार चरिउ में चार सन्धियां और ७४ कडवक हैं। जिनकी श्लोक संख्या ८०० श्लोकों के लगभग है जिनमें धनकुमार की जीवन-गाथा अंकित की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ को रचना प्रारौन जिला ग्वालियर निवासी जैसवाल वंशी साहु पुण्यपाल के पुत्र साहु भुल्लण की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुई है। अतएव उक्त ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया गया है । ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति में साहु भुल्लण के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है । इस ग्रन्थ की रचना कब हुई ? यह ग्रन्थप्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता; क्योंकि उसमें रचना काल दिया हुआ नहीं है । किन्तु प्रशस्ति में इस ग्रन्थ के पूर्ववर्ती रचे हुए ग्रन्थों के नामों में 'णंमिजिणिद चरिउ (हरिवंश (पुराण) का भी उल्लेख है इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उसके बाद बनाया गया है । 'जसहर चरिउ' में ४ सन्धिया और १०४ कडवक हैं जिनकी श्लोक संख्या ६७७ के लगभग है । ग्रन्थ में योधेय देशके राजा यशोधर र चन्द्रमती का जीवन परिचय दिया हुआ है । ग्रन्थ का कथानक सुन्दर और हृदयग्राही है और वह जोव दया की पापक वार्तानों से ओत-प्रोत है । यद्यपि राजा यशोधर के सम्बंध में संस्कृतभाषा में अनेक चरित ग्रन्थ लिखे गए हैं जिनमें आचार्य सोमदेव का 'यशस्तिलक चम्पू' सबसे उच्चकोटि का काव्य-ग्रन्थ है परन्तु अपभ्रंश भाषा का यह दूसरो रचना है प्रथम ग्रन्थ महाकवि पुष्पदन्त का है । यद्यपि भ० अमरकीर्ति ने भी 'जसहर चरिउ' नाम का ग्रन्थ लिखा था; परंतु वह अभी तक अनुपलब्ध है । ऐ० प० सरस्वती भवन व्यावर में इसकी सचित्र प्रति विद्यमान है । इस ग्रन्थ की रचना भट्टारक कमलकीर्ति के अनुरोध से तथा योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवाल वंशी साहु कमलसिंह के पुत्र साहु हेमराज को प्रेरणा से हुई है । अतएव ग्रन्थ उन्हीं के नाम किया गया है। उक्त साहु परिवार ने गिरनार जी को तीर्थयात्रा का संघ चलाया था । ग्रन्थ की आद्यन्त प्रशस्ति में साहु कमलसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है । कवि ने यह ग्रन्थ लाहड़पुर के जोधा साहू के विहार में बंटकर बनाया है, और उसे स्वयं 'दयारसभर गुणपवितं ' - पवित्र दयारूपी रस से भरा हुआ बतलाया है । 'अणथमी कहा' में रात्रिभोजन के दोषों और उससे होने वाली व्याधियों का उल्लेख करते हुए लिखा है। कि दो घड़ी दिन के रहने पर श्रावक लोग भोजन करें; क्योंकि सूर्य के तेज का मंद उदय रहनेपर हृदय कमल सकुचित हा जाता है अतः रात्रि भोजनके त्याग का विधान धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किया गया है। जैसा कि उसके निम्न दो पद्यों से प्रकट है : " जि रोय दलद्दिय दीण प्रणाह, जि कुट्ठ-गलिय कर करण सवाह । दुहग्ग जि परियणु बग्गु प्रणेह, सु-रयणिहि भोयण फलु जि मुणेहु । घड़ी दुइ वासरु थक्कइ जाम, सुभोयण सावय भुंजहि ताम । दिवायरु तेज जि मंदउ होइ, सकुच्चर चित्तहु कमलु जिब सोइ ।" कथा रचने का उद्देश्य भोजन सम्बन्धो असंयम से रक्षा करना है, जिससे ग्रात्मा धार्मिक मर्यादाओं का पालन करते हुए शरीर को स्वस्थ बनाये रखे । 'सिद्धांतार्थसार' का विषय भी सैद्धांतिक है और मपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है। इसमें सम्यग्दर्शन जीव स्वरूप, गुणस्थान, व्रत, समिति, इंद्रिय निरोध आदि प्रावश्यक क्रियाओं का स्वरूप, अट्ठाईस मूलगुण, प्रष्टकर्म द्वादशांगत, लब्धिस्वरूप, द्वादशानुप्रक्षा दशलक्षणधर्म और ध्यानों के स्वरूप का कथन दिया गया है। इस ग्रन्थ की रचना वणिकवर श्रेष्ठी खेमसी साहु या साड्डु खेमचन्द्र के निमित्त की गई है । परन्तु खेद है कि उपलब्ध ग्रन्थ

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