Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 512
________________ ४७८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पट्टधर शिष्य थे ही, किन्तु आपके अन्य तीन शिष्यो से भट्टारक पदी की तीन परम्पराए प्रारम्भ हुई थी जिनका आगे शाखा-प्रशाखा रूप में विस्तार हुआ है । भट्टारक शुभचन्द दिल्ली परम्परा के विद्वान थे । इनक द्वारा 'सिद्धचक्र' को कथा रची गई है। जिसे उन्होंने सम्यग्दप्टि जालाक के लिये बनाई थी। भ० सकलकाति स ईडर को गद्दी र देवेन्द्रकीति से मरत की गही की स्थापना हुई थी। चकि पद्मनन्दी मलसघ के विद्वान थे अतः इनकी परम्परा स मल मघ की परम्परा का विस्तार हमा। पद्मनन्दी अपन समय के अच्छे विहान, विचारक प्रार प्रभावशाली भट्टारक थे । भ० सकलकीति ने इनके पास आठ वर्ष रहकर धर्म, दर्शन, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोप, माहित्य आदि का ज्ञान प्राप्त किया था और कविता में निपुणता प्राप्त को थी। भट्टारक सकलकानि न अपनी रचनात्रा में उनका स-सम्मान उल्लेख किया है पद्मनन्दी केवल गद्दी धारी भट्टारक ही नही थ, किन्तु जन सस्कृति के प्रचार एव प्रसार में सदा सावधान रहते थे। पद्मनन्दी प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इनके द्वारा विभिन्न स्थानो पर अनेक मनिया को प्रतिष्ठा की गई थी। जहा वे मत्र-तत्र वादी थे, वहा वे अत्यन्न विवेकशील और चतुर थे। पापके द्वारा प्रतिष्ठित मनिया विभिन्न स्थानो के मन्दिरो में पाई जाती है । पाठकों की जानकारी के लिये दो मूर्ति लेख नीचे दिये जाते है: १ आदिनाथ-ओं संवत १४५० वैशाख सुदी १० गरी श्री चहुवाण वश कुशेशय मार्तण्ड सारवे विक्रमन्य श्रीमत स्वरूप भूपान्वय झुडदेवात्मजस्य भूषज शक्रस्य श्री सबानृपतेः राज्ये प्रवर्तमाने श्री मलयंघे भ० श्री प्रभाचन्द देव, तत्पट्टे श्री पद्मनन्दि देव तदुपदेशे गोलाराडान्वये--- -(भटटारक सम्प्रदाय ८६२) २ अरहंत-हरितवर्ण कृष्णमूर्ति- स० १४६३ वर्षे माघ मुदी १३ शुक्र श्री मल संघे पट्टाचार्य श्री पदम नन्दि देवा गोलाराडान्वये साधु नागदेव सुत----। (इटावा के जंन मूनि लेख- प्राचीन जन लेख पग्रह पृ०३८) ऐतिहासिक घटना भ० पद्मनन्दी के सानिध्य में दिल्ली का एक सघ गिरनार जी की यात्रा को गया था। उस गमय श्वेताम्बर सम्प्रदाय का भी एक सघ उक्त तीर्थ की यात्राथ वहा आया हुआ था। उस समय दाना गधा में यह विवाद छिड़ गया कि पहले कोन वन्दना करे, जब विवाद ने तूल पकड़ लिया पार कुछ भी निर्णय न हो सका, तब उसक शम नार्थ यह युक्ति सोची गई कि जो सघ सरस्वती से अपने को 'आद्य' कहला देगा, वही मध पहल यात्रा का जा सकगा अतः भट्टारक पद्मनन्दी ने पापाण की सरस्वती देवी के मुख से 'याद्य दिगम्बर' शब्द पहला दिया, पारणामस्वरूप दिगम्बर्ग ने पहले यात्रा की, और भगवान नेमिनाथ की भाक्त पूर्वक पूजा को। उसके बाद श्वनाम्बर सम्प्रदाय ने की। उसी समय से बलात्कारगण की प्रसिद्धि मानी जाती है । वे पद्य इस प्रकार है : पद्मनन्दि गुरुर्जातो बलात्कारगणाप्रणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्री सरस्वती॥ ऊर्जयन्त गिरौ तेन गच्छः सारस्वतोऽभवत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनन्दिने ॥ यह ऐतिहासिक घटना प्रस्तूत पद्मनन्दी के जीवन के साथ घटित हई थी। पद्मनन्दी नाम साम्य के कारण i ने इस घटना का सम्बन्ध प्राचार्य प्रवर कन्दकन्द के साथ जाड दिया । वह ठाक नही है क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य मूल संघ के प्रवर्तक प्राचीन मुनि पुंगव है ओर घटनाक्रम अर्वाचीन है । ऐसी स्थिति में यह घटना प्रा० कुन्दकुन्द के समय की नही है । इसका सम्बन्ध तो भट्टारक पद्मनन्दी से है। १. श्रीपानन्दी मुनिराजपट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः । श्रीसिद्धचक्रस्य कथाऽवतारं चकार भव्याबुजभानुमाली। (जननन्थ प्रशस्ति सं० भा० १ पृ. ८८)

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