Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 510
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पापं लुम्पति पाति जीवनिवहं ध्यानं समालम्बते । सोऽयं नंदतु साधुरेव हरषी पुष्णाति धर्म सदा। -सिद्धचक्र विधि (श्रीपालच० संधि ७) कवि की अन्य कृतियाँ : इन ग्रन्थों के अतिरिक्त कवि की 'दश लक्षण जयमाला' पोर 'षोडशकारण जयमाला' ये दोनों पूजा ग्रन्थ भी मुद्रित हो चुके हैं। इनके सिवाय पञ्जुण्ण चरिउ, सुदसणचरिउ, करकण्डुचरिउ ये तीनों ग्रन्य अभी अनुपलब्ध हैं । इनका अन्वेषणकार्य चालू है । । 'सोऽहं थुदि' नाम की एक छोटी-सी रचना भी अनेकात में प्रकाशित हो चुकी है। अभी अभी सूचना प्राप्त हुई है कि रइधू कवि का तिसट्ठि पुरिस गुणालंकार (महापुराण) ग्रन्थ बाराबकी के शास्त्र-भण्डार से पं० कैलाशचन्द्र सि० शा० को प्राप्त हुआ है, जिसकी पत्र संख्या ४६५ है, ५० सधियाँ, १३५७ कदवक है । यह प्रति स० १४६६ की लिखी हुई है। कवि रइध ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का अपनी रचनायो में ससम्मान उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार है-१ देवनन्दी (पूज्यपाद) २ रविषेण ३ च उमुह ४ द्रोण ५ स्वयभूदेव, ६ वज्रसेन, ७ पुन्नाट सघी जिनसेन ८ पुष्पदन्त ह और दिनकर सेन का अनंग चरित। इनमें से अधिकांश कवियों का परिचय इसी ग्रथ में मन्यत्र दिया हुआ है। कवि हरिचन्द कवि हरिचन्द का वंश अग्रवाल है। पिता का नाम जंडू और माता का नाम वोल्हादेवी था। कवि ने अपने गुरु का कोई उल्लेख नहीं किया। कवि की एक मात्र रचना 'अणत्थमिय कहा है। प्रस्तुत कथा में १६ कडवक दिये हए है, जिनमें रात्रि भोजन से होने वाली हानियों को दिखलाते हुए उसका त्याग करने की प्रेरणा को गई है और बतलाया है कि जिस तरह अन्धा मनुष्य ग्रासकी शुद्धि अशुद्धि सुन्दरता आदि का अवलोकन नही कर सकता। उसी प्रकार मूर्य के प्रस्त हो जाने पर रात्रि में भोजन करने वाले लोगों से कीड़ी, पतगा, झीगुर, चिउटो, डास मच्छर आदि सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षा नहीं हो सकती। बिजली का प्रकाश भी उन्हें राकने में समर्थ नही हा सकता। रात्रि में भोजन करने से भोजन में उन विषैले जीवों के पेट में चले जाने से अनेक तरह के रोग हो जाते है, उनमे शारीरिक स्वास्थ्य को बडी हानि उठानी पड़ती है। प्रतः धार्मिक दृष्टि और स्वास्थ्य का दप्टि से रात्रि में भोजन का परित्याग करना हो श्रेयस्कर है जैसा कि कवि के निम्न पद्य से स्पष्ट है: जिहि दिष्ट्र णय सरह प्रधुजेम, नहि गास-सूद्धि भण होय केम किमि-कोड-पयंगइ झिगुराइ पिप्पीलई डंसई मच्छिराई। खज्जूरई कण्णसलाइयाइं प्रवरइ जीवई जे बहु सयाई। अण्णाणी णिसि भुंजंतएण, पसु सरिसु परिउ अप्पाणु तेण ॥ पत्ता- जवालि विदीणउकरि उज्जोवउ अहिउ जीउ संभवई परा। भमराई पयंगई बहुविह भंगई मंडिय दोसई जित्थु धरा ॥५॥ कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया। परन्तु रचना पर से वह रचना १५वी शताब्दी को जान पड़ती है। भ० पद्मनन्दी मुनि पद्मनन्दी भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर विद्वान थे । विशुद्ध सिद्धान्तरत्नाकर और प्रतिभा द्वारा प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए थे। उनके शुद्ध हृदय में प्रभेद भाव से प्रालिङ्गन करती हुई ज्ञान रूपी हंसी आनन्दपूर्वक १. विशेष परिचय के लिए देखिए, अनेकान्त वर्ष : किरण ६ में प्रकाशित महाकवि र इधू नाम का लेख । तथा वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ १०३६८ । २. भीमप्रभाचम्द मुनीन्द्र पट्ट, शश्वत प्रतिष्ठा प्रतिभागरिष्ठः। विशुद्धसिद्धान्त रहस्यरलरत्नाकरानन्दतु पपमन्दी ॥ -शुभचन्द पट्टावली

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