________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ इस संघ के अन्तर्गत सात गणों के नाम मिलते हैं— देवगण, सेनगण, देशोगण, सूरस्थ गण, बलात्कारगण, क्राणूरगण और निगमान्वय । इन गणों का नामकरण मुनियों के नामान्त शब्दों से, तथा प्रान्त श्रौर स्थान विशेष के कारण हुए है।
देवगण – इनमें देवगण सबसे प्राचीन है। इस गण का अस्तित्व लक्ष्मेश्वर से प्राप्त चार लेखों में ( १११, ११३, ११४ और १५६ ) से, तथा कडवन्ति से प्राप्त ११वी शताब्दी के एक लेख १६३ मे मालूम होता है। इसके पश्चात् अन्य लेखों में इसका उल्लेख नही मिलता । इसका देवगण नाम कैसे पड़ा, यह तत्कालीन लेखों से कुछ ज्ञात नही होता । सभव है देवान्त नाम होने मे देवगण सज्ञा प्राप्त हुई हो। जैसे उदयदेव, ( ११३ ) लाभदेव, जयदेव, विजयदेव श्रङ्कदेव, महीदेव और अकलकदेव आदि। कुछ विद्वान् अकलकदेव को इस गण का प्रतिष्ठापक मानते है । मेनगण - यह गण भी प्राचीन है । यद्यपि इसका सबसे पहला उल्लेख मूलगुण्ड से प्राप्त लेख न० १३७ ( सन् २०३ ) में हुआ है । पर उत्तरपुराण के रचयिता गुणभद्र ने अपने गुरु जिनमेन और दादा गुरु वीरसेन को सेनान्वय का विद्वान माना है। किन्तु वीरमेन जिनमेन ने अपनी धवला जयधवला टीका में अपने वश को पंचस्तूपान्वय लिखा है । पचस्तूपान्वय ईसा की ५वी शताब्दी में होने वाले निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के साधुओ का एक सघ था। यह बात पहाड़पुर जि० राजशाही, बगाल से प्राप्त एक लेख मे जानी जाती है । पचास्तूपान्वय का सेनान्वय के रूप सबसे पहला उल्लेख संभवतः गुणभद्र ने उत्तरपुराण में किया है। इसमे यह कहा जा सकता है कि जिनसेन इस गच्छ के प्रथम प्राचार्य थे । इसके बाद के किसी प्राचार्य ने पंचस्तूपान्वय का उल्लेख नही किया ।
सेनगण तीन उपभेदों में विभक्त हुआ । पोगरी या होगिरी गच्छ, पुस्तकगच्छ और चन्द्रकपाट । पोगरीकच्छ का प्रथम उल्लेख' शक स० ८१५ सन् ८०३ (वि० स० ६५० ) के लेख में 'मूलसंघ सेनान्वय' पोगरीगण के प्राचार्य विजयसेन के शिष्य कनकसेन को ग्रामदान देने का उल्लेख है ।
५६
देशी गण - कोण्डकुन्दान्वय के साथ प्रयुक्त होने वाले देशीयगण का मूलमघ के साथ प्रयोग सन् ८६० ई० के एक लेख में पाया जाता है। जो पहले ताम्रपत्र के रूप में था और बहुत समय बाद मुनि मेघचन्द्र विद्यदेव के शिष्य वीरनन्दी मुनि ने कुछ लोगो के श्राग्रह से पापाणोत्कीर्ण कराया था । मेघचन्द्र त्रैविद्य देव और वीरनन्दी की गुरु परम्परा का उल्लेख लेख न० ४१ में पाया जाता है। अनेक शिलालेखो में देसिय, देशिक, देसिंग और देशीय आदि नामों से इस गण का उल्लेख मिलता है । देशिय शब्द देश शब्द से बना है, देश का सामान्य अर्थ प्रान्त होता है । दक्षिण भारत में कन्नड़ प्रान्त के उस भू-भाग को, जोकि पश्चिमी घाट के उच्च भूमिभाग ( बालाघाट ) और गोदावरी नदी के बीच में है, देश नाम में कहा जाता था । वहाँ के निवासी ब्राह्मण अब भी देशस्थ कहलाते हैं। इस गण के आदिम ग्राचार्यों के नाम के साथ 'भट्टारक' पद जुडा हुआ है। हवी शताब्दी के अनेक लेखो में मुनियो की उपाधि भट्टार या भट्टारक दी गई है । पश्चाद्वर्ती लेखों में इस गण के प्राचार्यों की उपाधि सिद्धान्तदेव, द्धान्तिक या विद्य पाई जाती है। शिलालेखों के अवलोकन से जाना जाता है कि कर्नाटक प्रान्त के कई स्थानों में इस गण के अनेक केन्द्र थे । उनमें नगोगे ( चिकनसोगे ) प्रमुख था । यहाँ के प्राचार्यों से ही आगे चलकर इस गण के हनसोगे बलिया गच्छ का उद्भव हुआ है । गच्छ का अर्थ शाखा या बलि होता है । कन्नड़ शब्द बलय या लग का अर्थ परिवार होता है ।
चिक हनसोगे के शिलालेखो मे ज्ञात होता है कि वहाँ इस गण की अनेक वसदिया (मंदिर) थीं, जिन्हें चंगात्व नरेशो द्वारा सरक्षण प्राप्न था । देशीगण का प्रमुख गच्छ पुस्तकगच्छ है । इसका उल्लेख अधिकांश लेखो में मिलता है । नमोवलि पुस्तकगच्छ का ही एक उपभेद है। इस गण की एक शाखा का नाम 'इंगुलेश्वर बलि' है । जिसके आचार्य गण प्राय: कोल्हापुर के आस-पास रहते थे ।
१ जैनलेख स० भा० ४ लेख न० ६१ पृ० ३६ ।
२.
देखो, जैन शिलालेख स० भा० ४ लेख न० ६४ । ३. जैन लेख स० भा० ४ ले० न० ६१ पू० ३६ ।