Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 471
________________ तेरहवी और चौदहवी शताब्दी विद्वान, आचार्य और कवि द्रव्य तथा यज्ञ के भाग को वीजाक्षर नाम युक्त मत्रों से देने का विधान किया गया है। जैसा कि उसकी निम्न दो गाथायो मे प्रकट है: पाहाहिऊण देवे सुरवइ-सिहि-कालणेरिए वरुण । पवणे जर ली सपिय स वाहणे स सत्थेय ॥४३६ दाउण पुज्ज दव्वं वलि चरुयं तहय गण्ण भायंच । सवेसि मंते ह य बीयक्खरणामजुत्तेहिं ।।४४० पं० कलाशचन्द्र जी सिद्धान शास्त्री ने सोमदेव के उपासकाध्ययन ओर भावमग्रह का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निक निकाला है कि भावसंग्रह कार ने सोमदेव के उपामकाध्ययन मे बहत कूछ लिया है। उपासका ध्ययन का रचनाकाल वि० स० १०१६। अत: भावसंग्रह उस के बाद को रचना है। भावसग्रह के कर्मा ने कालधर्म का कथन कपूर मजरी से लिया जान पड़ता है। दोना कथना में प्रोर शब्दों में समानता दप्टिगोचर होती। भावमग्रट का शिथलाचार विषयक वर्णन उसका अर्वाचीनता का द्योतक है। स्व. पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया ने भी भावसंग्रह के सम्बध में एक विम्तत तेय 'महावीर जयन्नी' रमारिका में प्रकट किया था। उसमें भावमंग्रह के कर्ता को दर्शनसार के कता से भिन्न मानते हुए अम्नाय विरुद्ध कथन करने का भी उल्लेख किया है। गाथा १६वी में पुगतन साधनों की कर्म निर्जरा मे हीन महननधारी माधनो को निर्जग को महत्वपूर्ण बतलाया है। वरिस सहस्सेण पुग जं कम्म हणइ तेण पुण्णेण । तं सपइ वरिसेणहु णिज्जरयइ हीण संहणणों ।।१३१ भावमग्रद कार ने प्राकृत पार अपभ्रश के पद्यों को एक साथ रक्खा है। पण्डित वागदेव ने भावगग्रह का सरकृतिकरण किया है । वामदेव का समय विक्रम की १४ वी शताब्दी है। पण्डित प्रागाधर जा के सामने गावमग्रह नहीं था। यदि होता तो वे उसके सम्बंध में अवश्य कुछ लिखते । गंभव है देवरीन ने वि० वी १२वी शताब्दी के उपान्त्य रामय में इगका सकरन किया हो । ग्रन्थ में कुछ गाधाए पुगनी भी राग्रहीत है, कुछ १५ गतादी की भी है। यह मालिक ग्रंथ नही जान पड़ना । कथन क्रम की असम्बद्धता भी इसकी अवाचानता का सूचक है। इस ग्रन्थ के सम्बध में अन्वेषण होना चाहिए, जिससे ग्रन्ध सम्बद्ध ओर वस्तु स्वरूप का प्रामाणिक विवचक हो सके। श्रु तमुनि मूलसघ, देशीयगण, पुस्तक गच्छ की इंगनेटवर शाखा में हुए है । इन के अणुव्रत गुरु वाजेन्दु (बालचन्द्र) और मुनिधर्म में दीक्षित करने वाले महावत गुरु नभयचन्द्र सिद्धांनी थे। इनमें बालचन्द्र मुनि भो अभय वन्द्र सिद्धांती के शिष्य थे, पोर इससे वे श्रतमान के ज्येष्ठ गरुभाई भी हए । शास्त्र गुरुओं में भी अभयसूरि सिद्धांती थे, जो शब्दागम, परमागम और तागम के पूर्ण जानकार थे। अोर उन्होंने राभी परवादियों को जीता था। और प्रमाचन्द्र मुनि सारत्रय में-प्रवचनसार, मगयसार पार पनास्तिकायसार में निपुण थे। परभाव से रहित हुए शुद्धत्मस्वरूप में लीन थे । और भव्य जनो को प्रतिबोध देने में सदा तत्पर थे। श्रुतमनि ने प्रशस्ति में इन सभी गुरुग्रां का जयघोप किया है । और चारुकीति मुनि का भी जयघोप किया है जो श्रवणबेलगोला की भट्टारकीय गद्दी के पट्टधर थे। और जिनका नाम चारुकीति रूढ़ था। उन्हें कवि ने नयनिक्षेपों तथा प्रमाणों के जानकार, सब धर्मों के विजेता, १. देखो वर्णी अभिनन्दन ग्रन्य प० २०७ में कोलधर्म परिचय नाम का लेख

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