Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 473
________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि ४३६ सप्ततत्त्व, नवपदार्थ, बन्ध, और बन्ध के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का क्रमशः वर्णन दिया हुआ है । ग्रन्थ के अन्त में उसका रचना काल शक सं० १२६३ (सन् १३४१ (वि० सं० १३६८) वृषसंवत्सर मगसिर सुदि सप्तमी गुरुवार दिया है । इससे श्रुतमुनि १४वीं शताब्दी के विद्वान हैं। रत्नयोगीन्द्र इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया और न समय ही दिया। इनकी एक मात्र कृति 'नागकुमार चरित' है, जो पंचसर्गात्मक है। और पांच सौ श्लोक प्रमाण संख्या को लिये हए है। जिसमें पंचमी व्रत के उपवास का माहात्म्य वर्णित है। श्री पंचम्युपवासस्य फलोदाहरणात्मकम्। एवं नाग कुमारस्य समाप्तिं चरितं ययौ ।। इति श्री रत्नयोगीन्द्रंणोपसंहत्य कीर्तितम् । सहस्त्रार्द्धमिति ग्रन्थये तच्चरितमुच्चकैः ॥ इति श्री नागकुमार चरिते श्री पंचमी महोपवास फलोदाहरणे पंचमः सर्गः । ग्रन्थ की यह प्रति खंभात के श्वेताम्बरीय शारत्र भंडार में अवस्थित है । ग्रन्थ की यह प्रति १४वीं शताब्दी की लिखी हुई है अतएव रत्नयोगीन्द्र का समय विक्रम की १३वीं या १४वी शताब्दी अनुमानित किया जा सकता है। कुलभद्र कूलभद्र ने अपनी रचना में अपने नामोल्लेख के सिवाय अन्य कोई परिचय देने की कृपा नहीं की। और न अपनी गुरु परम्परा तथा गणगच्छादि का ही उल्लेख किया। इससे इनका परिचय और समय निश्चित करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही है । इस ग्रन्थ की लिपिबद्ध प्रतियां जयपुर और उदयपुर के शास्त्रभंडार में पाई जाती है। इस पर पण्डित दौलतराम जी कासलीवाल ने हिन्दी टिप्पण भी लिखा है। जयपुर के वधीचन्द्र मन्दिर के शास्त्रभंडार में संवत् १५४५ कार्तिक सुदी चतुर्थी की लिखी हुई प्रतिलिपि पाई जाती है । इससे इतना तो सुनिश्चित है कि यह ग्रन्थ सं० १५४५ के बाद की रचना नहीं है, किन्तु उससे पूर्ववर्ती है। इनकी एकमात्र कृति 'सार समुच्चय' है, जो एक उपदेशिक ग्रन्थ है रचना साधारण होते हुए भी उसमें सरल शब्दों में धर्म के सार को रखने का प्रयत्न किया है। ३३० संस्कृत के अनुष्टुप पद्यों द्वारा प्रात्मा के स्वहित का उपदेश दिया गया है। उसमें बतलाया है कि जो जीव कषायों से मलिन है, जिनका मन राग से अनुरंजित है, वह चारों गतियों में दुख उठाता है, और जो विपय-कषायों से संतप्त नहीं है किन्तु उन्हें जीतने का यत्न करता है वही सूख का पात्र बनता है । जो परीषहों के जीतने में वीर है, और इन्द्रियों के निग्रह में सुभट है, और कषायों के जीतने में सक्षम है, वही लोक में शूर-वीर कहा जाता है । अथवा जो इन्द्रियों को जीतने में वीर है, कर्म बंधन में कायर है, तत्त्वार्थ में जिसका मन लगा है। और जो शरीर से भी निस्पृह है। वही परीषह रूपी शत्रुओं को जीतने में समर्थ है। और वही कषायों के जीतने में भी धीर है, वही शूर वीर कहा जाता है । रचना को देखते हुए यह अनुमान होता कि प्रस्तुत १. पंचस्थि कायदन छक्क तच्चाणि सत्तय पदत्था। णवबन्धो तककारणं मोक्खो तक्कारणं चेदि । अहियो अट्ठविहो जिरणवयण णिरूविदो सवित्थर दो। वोच्छामि समासेरण य सुणुय जणा दत्त चित्ता हु ॥१० (परमागमसार) २. ग्रन्थ श्वेताम्बरीय Santinatha Sain bhan dar cambay में उपलब्ध है। देखो, खंभात भंडार की सूची भा०२ ३. अयं तु कुलभद्रेण भवविच्छत्ति कारणम् । द्रब्धो बालस्वभावेन ग्रंथः सार समुच्चयः ॥३२५ परीषह जये शूराः शूराश्चेन्द्रियनिग्रहे । कषायविजये शूरास्ते शूगगदिता बुधः ।।२१० ४. देखो, पद्य नं० २१४, २१५ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591