Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 476
________________ ४४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि वर्द्धमान भट्टारक यह मलसंघ बलात्कारगण और भारतो गच्छ के विद्वान थे। इनकी उपाधि परवादि पंचानन' थी, वरांगचरित की प्रशस्ति में कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है : स्वस्ति श्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलात्कारसंज्ञ, श्रीभारत्याख्यगच्छे सकलगुण निधिर्वद्धमानाभिधानः। प्रासीद्भट्टारकोऽसौ सुचरितमकरोच्छीवरांङ्गस्य राज्ञो, भव्यश्रेयांसि तन्वद् भुविचरितमिदं वर्ततामातारम् ॥ -वरांगचरित १३.८७, वर्द्धमान नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उसमें एक वर्द्धमान न्यायदीपिका के कर्ता धर्मभूषण के गुरु थे। और 'देशभक्त्यादि महाशास्त्र' के भी कर्ता थे, और दूसरे वर्द्धमान हमच शिलालेख के रचयिता है। इनका समय १५३० ई० के लगभग है । विजयनगर के शक सं० १६०७ (सन् १३८५ ई०) में उत्कीर्ण शिलालेख में भट्टारक धर्मभूषण के पट्टधर और सिंहनन्दी योगीन्द्र के चरण कमलों के भ्रमर वर्द्धमान मुनि थे, उनके शिष्य धर्मभूषण हुए। जैसा कि उसके निम्नपद्यों से प्रकट है: पट्टे तस्य मुनेरासीद्वर्द्धमानमुनीश्वरः । श्री सिंहनन्दि योगीन्द्र चरणाम्भोज षट्पदः ॥१२ शिस्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणदेशिकः । भट्टारक मुनिः श्रीमान् शल्यत्रय विजितः ॥१३ इनके समय में शक सं० १३०७ (सन् १३८५ ई०) की फाल्गुण कृष्ण द्वितीया को राजा हरिहर के मंत्री चैत्रदण्ड नायक के पुत्र इरुगप्प ने विजयनगर में कुन्थनाथ का मन्दिर बनवाया था। दश भक्त्यादि शास्त्र के निम्न पद्य में उल्लिखित विजयनगर नरेश प्रथम देवराज राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित थे। इनका राज्य संभवतः सन १४१८ ई. तक रहा है। और द्वितीय सन् १४१६ से १४४६ ई. तक माना जाता है। राजाधिराज परमेश्वर देवराज, भूपाल मौल्लिसदंघ्रि सरोजयुग्मः। श्रीवर्द्धमान मुनि वल्लभ मौढ्य मुख्यः श्रीधर्मभूषण सुखी जयती क्षमाढयः ॥ भट्टारक धर्मभूषण ने न्यायदीपिका की अन्तिम प्रशस्ति में, और पुप्पिका में भट्टारक वर्द्धमान का उल्लेख किया है : मदगुरोर्वर्द्धमानेशो वर्द्धमानदयानिधेः । श्रीपदस्नेह सम्बन्धात् सिद्धेयं न्यायदीपिका ॥ -न्यायदीपिका प्रश० इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि धर्मभूपण के गुरु वही भट्टारक वर्द्धमान हैं, जो वरांग चरित के कर्ता हैं। वर्द्धमान भट्टारक का समय धर्मभूषण के गुरु होने के कारण ईसा की चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। वरांग चरित्र संस्कृत भाषा का लघुकाय ग्रन्थ है। इस काव्य में १३ सर्ग हैं जिसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के वरदत्त गणधर के समकालीन होने वाले राजा वरांग का चरित वर्णित किया गया है। यह जटिल १. तस्य श्री चंचदण्डाधिनायकस्योर्जितश्रियः । प्रासीदिरुग दण्डेशो नन्दनो लोकनन्दनः ।। २१ तस्मिन्नि रुग दण्डेशः पुरेचारुशिलामयम् । श्री कुन्थ जिन नाथस्य चैत्यालयमचीकरत् ।। २८ -विजयनगर शि० नं. २

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