Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 503
________________ ४६हं १५वी, १६वी, १७वी और १८वी शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि श्रम्हहं पसाएणभव- दुह कयंतस्स ससिपह जिणेदस्स पडिमा विसुद्धस्स । काराविया मई जि गोवायले तुंग, उडुचावि णामेण तित्थम्मि सुहसंग । खेत्हा ने उस समय अपनी त्यागवृत्ति वा क्षत्र बढ़ा लिया था और ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्राव " के रूप में आत्मसाधना करने लगे थे । ग्रन्थ की प्राद्यन्त प्रशस्ति में कवि ने तोसउ साहु के वश का विस्तृत परिचय दिया है जिसमें उनके परि वार द्वारा सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यों का परिचय मिल जाता है । कविने ताप साहू का उल्लेख करते हुए उन्हें जिन चरणों का भक्त, पंचइन्द्रियो के भोगो से विरक्त, दान देन में तत्पर, पाप से शक्ति-भय-भीत और तत्त्वचिन्तन में सदा निरत बतलाया है। साथ ही यह भी लिखा है उसकी लक्ष्मी दुखी जनो के भरण-पोषण में काम प्राती थी । वाणी श्रुत का प्रवधारण करती थी । मस्तक जिनेन्द्र को नमस्कार करन में प्रवृत्त होता था । वह शुभमती था, उसके सभापण में कोई दोष नही होता था । चिन तत्त्व विचार में निमग्न रहता था और दोनों हाथ जिन पूजा-विधि से सन्तुष्ट रहते थे । जो णिच्चं जिण पाय कंज भसलो जो णिच्च दाणेरदो । जो पंचेदिय भोय-भाव-विरदो जो चितए संहिदो । जो संसार महोहि पावन भिदो जो पावदो संकिदो । एसो णंदउ तोसडो गुणजुदो सत्तत्थ वेईचिरं ॥२ लच्छी जस्स दहीजणाणभरणे वाणी सुयं धारिणे । सीस सन्नई कारणे सुभमई दोसं ण संभासणे । चित्तं तव विधारणे करजुयं पूया - विही संददं । सोज्यं तोसउ साहु एत्थ धवलो संणदश्रो भूयले || ३ वील्ला, जो जैनधर्मी निष्पाप तथा दिल्ली के बादशाह हिसार के अग्रवाल वशी साहु नरपति के पुत्र साहु फीरोजशाह तुगलक द्वारा सम्मानित थे । धाधिप सहजपाल ने, जो सहदेव का पुत्र था, जिनेन्द्रमूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। साहू सहजहाल के पुत्र ने गिरनार की यात्रा का सघ भी चलाया था, और उसका सब व्यय भार स्वयं वह्न किया था। ये सब ऐतिहा सिक उल्लेख महत्वपूर्ण है। और अग्रवालों के लिये गौरवपूर्ण है । कवि ने प्रशस्ति में काटा संघ की भट्टारक परम्परा का इस प्रकार उल्लेख किया है— देवमेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावमेन, सहस्र कीति, गुणकीनि (म० १४६८ से १४० १ ) यश. कीर्ति १४८ से १५१०, मलयकीर्ति १५०० से १५२५, गुणभद्र १५२० से १५४० ) । कवि अपने से पूर्ववर्ती निम्न साहित्यकारों का उल्लेख किया है - चउमुह, स्वयंभू, पुण्यदन्त श्रीर वीर कवि । कवि ने इस ग्रन्थ से पूर्व रची जानेवाली इन रचनाओं का नामोल्लेख किया है - पासणाहचरिउ, मेहेसरचरिउ, सिद्धचक्क माहप्प, वलहद्दचरिउ, सुदंसणचरिउ श्रौर धणकुमारचरिउ । सुकौशलचरिउ - मे ४ मधियां और ७४ कडवक है । पहली दो संधियों में कथन क्रमादि की व्यवस्था व्यक्त करते हुए तीसरी मधि में चरित्र का चित्रण किया है। चौथी सधि में चरित्र का वर्णन करते हुए उच्चकोटी का काव्यमय वर्णन किया है । किन्तु शैली विषयवर्णनात्मक ही है । कवि ने इस खण्ड-काव्य में सुकौशल की जीवनगाथा को प्रति किया है कथानक इस प्रकार है. इक्ष्वाकु वंश में कीर्तिधर नाम के प्रसिद्ध राजा थे । उन्हें उल्कापात के देखने से वैराग्य हो गया था, अतएव वे साधुजीवन व्यतीत करना चाहते थे । परन्तु मंत्रियों के अनुरोध से पुत्रोत्पत्ति के समय तक गृही जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। कई वर्षो तक उनके कोई सन्तान न हुई । उनकी रानी सहदेवी एक दिन जिन मन्दिर गई। वहां जिन दर्शनादि क्रिया सम्पन्न कर उसने एक मुनिराज से पूछा कि मेरे पुत्र कब होगा ? तब साधु ने कहा की तुम्हारे एक पुत्र अवश्य होगा, परन्तु उसे देखकर राजा दीक्षा ले लेगा, और पुत्र भी दिगम्बर साधु को देखकर साधु बन जायगा । कुछ समय पश्चात् रानी के पुत्र हुम्रा । रानी ने पुत्रोत्पत्ति को गुप्त रखने का बहुत प्रयत्न किया;

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