Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 498
________________ ४१४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ चौबीसी मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी' । पश्चात् मं० १४८१ में डूंगरसिंह राजगद्दी पर बैठा । राजा ड्रगनिह राजनीति में दक्ष, शत्रों के मान मर्दन करने में समर्थ, और क्षत्रियोचित क्षात्र तेज मे अलंकृत था। गुण गगह मे विभूपित, अन्याय रूपी नागों के विनाश करने में प्रवीण, पंचांग मंत्रशास्त्र में कुशल तथा असि रूप अग्नि गे मिथ्यात्व-रूपी वंश का दाहक था । उसका यश सब दिशामों में व्याप्त था। वह राज्य-पटट से अलकन. विपल बल से सम्पन्न था। डंगरसिंह की पटरानी का नाम चंदादे था, जो अतिशय रूपवती और पतिव्रता थी । इनके पुत्र का नाम करणसिंह, कीनिमिह या कीर्तिपाल था, जो अपने पिता के समान ही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर था । डंगरमिह ने नरवर के किले पर घेरा डाल कर अपना अधिकार कर लिया था। शत्र लोग इगके प्रताप एव पराक्रम से भयभीत रहते थे। जैनधर्म पर केवल उसका अनुराग ही न था किंतु उस पर वह यानी पूरी प्रारथा भी रखता था। फलस्वरूप उसने जैन मूर्तियों की खुदवाई में सहस्रों रुपये व्यय किए थे। इससे ही उसको आस्था का अनुमान किया जा सकता है। __डंगरांसह सन् १४२४ (वि० सं० १८८१) में ग्वालियर की गद्दी पर बैठा था । उसके राज्य समय के दो मूर्ति लेख सम्बत् १४६६ और १५१० के प्राप्त हैं । सम्वत् १४८२ की एक, और सम्बत् १८८६ का दा लेखक प्रशस्तियाँ पं० विबुध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश-भापा के सुकमानचारत्र की प्राप्त हुई हैं। इनके सिवाय 'भविष्यदत्त पंचमी कथा' की एक अपूर्ण लेखक प्रशस्ति कारजा के ज्ञान भण्डार का प्रात में प्राप्त हुई है । इंगरांसह ० सं० १४८१ से सं० १५१० या इसके कुछ बाद तक शासन किया। उसके बाद राज्य सत्ता उसक पुत्र कातिसिह के हाथ में आई थी। __ कविवर रइधू ने राजा डूगरसिह के राज्य काल में तो अनेक ग्रन्थ रचे ही है किन्तु उनके पुत्र कीतिसिह के राज्य काल में भी सम कौमुदी (सावय चरिउ) की रचना की है। ग्रन्थकता ने उक्त ग्रन्थ को प्रशस्ति में कीर्तिसिह का परिचय कराते हुए लिखा है कि वह तोमर कुल रूपी कमलों को विकसित करने वाला सूर्य था पोर दुर्वार शत्रयों के संग्राम मे अतृप्त था । वह अपने पिता डुगरसिह के समान ही राज्य भार का धारण करने में समर्थ था। वन्दी-जनों ने उसे भारी अर्घ समर्पित किया था। उसकी निर्मल यश रूपी लता लोक में व्याप्त हो रही थी। उस समय वह कलिचक्रवर्ती था। तोमरकुलकमलवियास मित्त, दुचारवैरिसंगर प्रतित्तु । डूंगरणिवरज्जधरा समत्थु, वंदीयण समप्पिय भूरि प्रत्थु । चउराय विज्जपालण प्रतंदु, णिम्मल जसवल्ली भुवरणकंदु । कलिचक्कवट्टि पायडणिहाणु, सिरिकित्तिसिंधु महिवइपहाणु ॥ -सम्यक्त्व कौमुदी पत्र २ नागौर भण्डार १. चौबीमी धातु-१५ इंच-संवत् १४७६ वर्ष वैशाखसुदि ३ शुक्रवासरे श्री गणपति देव राज्य प्रवर्तमाने श्री मूलसघे नद्याम्नाये भट्टारक शुभचन्द्र देवा मंडलाचार्य पं. भगवत तत्पुत्र संघवी खेमा भार्या खेमादे जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कारापितम्। नयामंदिर लश्कर २. सं० १४८२ वैशाखमुदि १० श्रीयोगिनीपुरे साहिजादा मुरादखान राज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठा संधे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्रीभावसेन देवास्तत्प? भ. श्रीगुणकीर्तिदेवास्तशिष्य 2ी यशःकोति देवा उपदेशेन लिखापितं ॥ -जैन ग्रन्थसूची भा० ५ पृ० ३६३ ३. सन् १४५२ (वि० सं० १५०६) में जौनपुर के सुलतान महमूदशाह शर्की और देहली के बादशाह बहलोल लोदी के बीच होने वाले संग्राम में कीतिसिंह का दूसरा भाई पृथ्वीपाल महमूदशाह के सेनापति फतहखां हार्वी के हाथ से मारा गया था। परंतु कविवर रइधु के ग्रंथों में कीर्तिसिंह के दूसरे भाई पृथ्वीपाल का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। -देखो टाड राजस्थान पृ० २५० स्वर्गीय महामना गौरीशंकर हीराचंद जी ओझा कृत ग्वालियर की तंवर वंशावाली टिप्पणी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591