Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 419
________________ तेरहवी और चौदहवी शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कषि ३८५ में अभी अन्वेपण करने की आवश्यकता है जिसमे यह ज्ञात हो सके कि इस वश की प्रतिष्ठा कब हुई , और राज्य शासन कब तक चला। रचनाएं कवि ने अपनी निम्न रचनाओं का उल्लेख किया है, जो मं० १२४७ तक रचो जा चुको थों-(१) णेमिणाहरिउ, (२) महाव: चरिउ (३) जसहरचरिउ, (४) धर्मचरित टिप्पण, (५) सुभाषितरत्न निधि, (६) धर्मोपदेश, (७) भाणपईव (ध्यानप्रदीप), (0) पट कर्मोपदेश, और (8) पुरदरविधान कथा। इनमें केवल तीन रचनाएं ही उपलब्ध है। इन रचनाओं में 'पृग्दर विहण कहा' 'छक्कम्मोवाएस' को दरावी मंधि में गमाविष्ट है। इसके माथ ही वहाँ देव पूजा का विस्तृत कथन समाप्त होता है। इसमे पुग्दर व्रत का विधान बनलाया गया है। यह व्रत किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष में किया जा सकता है । शक्ल पक्ष की प्रतिपदा मे अप्टनी तक प्रापधोगबाम करना चाहिए। जिन पूजन और उद्यापन विधि का भी वर्णन है। कवि ने इसे अम्ब प्रमाद के निमित्त बनाया णेमिणाहचरिउ इस ग्रन्थ में २५ मन्धिया है जिनकी इन्दोव गाया छह रजार पाठ मा पच्चाणवे है। इसमें जैनियों के बाईसवं तीथकर भगवान मिनाथ की जीवनगाथा ग्रा तामण के चचेरे भाई थ । इस ग्रन्थ को कवि ने सवत् १०४८ -द्रपद वला चतुर्दगा का ममाप्त किया था। परन ग. १५१२ लिखा हई है, जो सानागिरि के भट्टारकीय शास्त्रभडार में मुगक्षत है। छक्कम्मोवएस प्रस्तूत पटकर्मोपदेवा में१८ मन्धियां पोर : १५ कडवा से, जिनकी लोकगख्या २०५० के प्रमाण को लिए हए है । इस ग्रन्थ का कवि ने अम्बाप्रमाद के निमित्त ग बनाया है। प्रमर नि नेम ग्रन्थ में गहस्थो के पट कर्मो कादवपूजा, गुरुगेवा, स्वाध्याय । गाग्वाभ्याग) गयम (इप दमन) नार पट काय जाव रक्षा, इच्छा निरोध रूप तप, और दान रूप पटक वा-वथन किया है । दुसर। गहवी मन्भिनक नाजा सविस्तन कथन किया गया है। जल, चन्दन, प्रक्षन, पाप, न घ, दाप, धप, फल प्रार अघ, इस गाट द्रा प्रकारा पूजा, उसका फल, अनेक नूतन वथा रूप दण्टालों के द्वाग उगम पार ग्राह्य बना दिया है। दावा गन्ध में जिन पूजा विधि की कथा और उद्यापन की विधि मन की गई है। ग्यारहवी मधि म दमर तीसरे गहस्थ कर्म-गुरु पामना ग्रोर स्वाध्याय का सून्दर उपदेश दिया है। स्वाध्याय कं वाचना, पच्छना, अनप्रक्षा, आम्नाय आर धमपिदेश आदि का मा कथन नदिष्ट है । गुरु का स्वरूप बतलाते हए कहा है कि मन की गका का निवारण करने वाला, शालवान, शुद्ध निष्ठावान, चारित्र भूपण, दूषणों का त्यागी हो उत्कृष्ट गुम है। इन्द्रिय-विषय-विकारी गुरु राछिद्र नाका क ममान बतलाया है। अतएव विकी, विद्वान, संयमी विषय-व्यापार से रहित पूरुप को ही गुरु बनाना श्रयस्कर है। १२ वो सधि में मयम का उपदेश है। संयम के दा भेद ? --एन्द्रियमयम अोर प्राणिमयम । पहले इन्द्रिय संयम है। इन्द्रियों का प्रसयम अापत्ति का कारण है। जव एक एक इन्द्रिय के विषय प्राणघातक तब पाची ही इन्द्रियों के विपय किस अनर्थ को उत्पन्न नही करते । अतएव इन्द्रिय-विपया का त्याग ज़रूरी है। मन द्वारा ही इन्द्रियां विषयो में प्रवति होती है। यदि मन वा में हो जाय, उसे विजित कर लिया जाय तो फिर इंद्रियाँ अपने विपयों में व्यापार नही कर सकती। अतः मन का जोतना जरूरी है। पट्काय के जीवों की रक्षा प्राणि संयम है। इसका पालन करना आवश्यक है। ४. See History of Gujrat in Bombay.Gazetecr rol. I

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