Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 368
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पद्य मिलते हैं। इनकी बनाई हई ५ टीकाएं उपलब्ध हैं। सारत्रय-प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकय, परमात्मप्रकाश, और तत्वरत्न प्रदीपिका (तत्त्वार्थसूत्रटीका) ये टीकाए बड़ी सून्दर और अध्यात्म विषय पर विस्तत प्रकाश डालती है। प्राभूतत्रय की टीका के अन्त में निम्न गद्य पक्ति दी है-इति समस्त सैद्धान्धिक चक्रवर्ती श्रीनय कोतिनन्दन- विनेयजनानन्दन-निजरुचि सागरनन्दि-परमात्मदेवसेवासादितात्मस्वभावनित्यानंद-बालचंद्र देव विरचिता समय प्राभूत सूत्रानुगत तात्पर्य वृत्तिः । कवि ने तत्त्वार्थसूत्र की 'तत्त्वरत्न प्रदीपिका' टीका कुमुद चंद्र भट्टारक के प्रतिबोध के लिये बनाई थी, ऐसा टीका में उल्लेख मिलता है। इनका समय सन् ११७० ईस्वी है। राजादित्य पद्यविद्याधर इनका उपनाम था। इसके पिता का नाम श्रीपति और माता का नाम वसन्ता था । कोडिमडल के पूविन बाग' में इसका जन्म हुआ था। यह विष्णुवर्धन गजा की सभा का प्रधान पंडित था। विष्णवर्धन ने ईस्वी सन् ११०४ से ११४१ तक राज्य किया है । कवि के समक्ष उसका राज्यभिषेक हुआ था । अपने माश्रय दाता राजा की इसने एक पद्य में बहुत प्रशसा की है। और उसको सत्यवक्ता, परहित चरित, सुस्थिर, भोगी, गभीर, उदार, सच्चरित्र अखिल विद्याबित और भव्य सेव्य बतलाया है । यह कवि गणित शास्त्र का बड़ा भारी विद्वान हुआ है। कर्णाटक कवि चरित के लेखक के अनुसार कनड़ी साहित्य में गणित का प्रथ लिखने वाला यह सबसे पहला विद्वान था। इसके बनाये हुए व्यवहार गणित, क्षेत्रगणित, व्यवहाररत्न, जैनगणित सूत्रटीका उदाहरण, चित्रह सूगे और लीलावती ये गणित ग्रन्थ प्राप्य है । ये सब ग्रन्थ प्रायः गद्य-पद्यमय है। इसका व्यवहार गणित नाम का ग्रन्थ बहुत अच्छा है । इसमे गणित के पैराशिक, पचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, चक्रवद्धि प्रादि सम्पूर्ण विषय है और वे इतनी सुगम पद्धति से बतलाये गये है कि गणित जैसा कठिन और नीरस विषय भी सरम हो गया है। कवि ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से इसे पांच दिन में बनाकर समाप्त किया था। कवि के गुरु का नाम शुभचद्र देव था । संभवतः ये शुभचद्र वही है। जिनका उल्लेख श्रवणवेलगोल के शिलालेख न० ४३ में किया है और जिनकी मृत्यु ईस्वी सन् ११२३ में बतलाई गई है। इससे कनि १११५ से ११२० तक जान पड़ता है। कीर्तिवर्मा यह चालुक्य वंशीय (सोलकी) महाराज त्रैलोक्य मल्ल का पुत्र था। त्रैलोक्यमल्ल ने सन् १०४४ से तक राज्य किया है । इस के चार पुत्र थे विक्रमाकदेव (१०७६ से ११२६), जयसिह, विष्णुवर्धन, विजया और कीतिवर्मा । कीर्तिवर्मा त्रैलोक्यमल्ल की जैनधर्म धारण करनेवाली केतलदेवी रानी के गर्भ से उत्पन्न हया था। केतलदेवी ने सैकड़ों जैनमन्दिर बनवाये थे। उसके बनवाए हुए मन्दिरो के खडहर और उनके शिलालेख अब कर्नाटक प्रान्तमें उसके नामका स्मरण कराते हैं । कीर्तिवर्मा के बनाये हुए ग्रन्थों में से इस समय केवल एक 'गोवैद्य' गन्थ प्राप्त है। इसमें पशुओं के विविध रोगों का और उनकी चिकित्सा का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इससे जान कि वह केवल कवि ही नहीं वैद्य भी था। गोवैद्य के एक पद्य में उसने अपने लिये कीर्तिचन्द्र, वैरिकरिहरि, कन्दर्प मति, सम्यक्त्व रत्नाकर, बुधभव्य बान्धव, वंद्य रत्नपाल, कविताब्धिचन्द्र कीर्तिविलास प्रादि विशेषण दिये हैं। रिहरि' विशेषण उसके बड़ा वीर तथा योद्धा होने को सूचित करता है। उसने अपने गुरू का नाम देवचन्द बतलाया है। श्रवण वेलगोल के ४० वे शिलालेख में राघव पाण्डवीय काव्य के कर्ता श्रुतकीर्ति विद्य के समका जिन देवचन्द की स्तुति की है संभवतः वे ही कीर्तिवर्मा के गुरु हों अथवा अन्य कोई देवचन्द। इनका समय सन् ११२५ ई० है। १. व्यवहार गणित के प्रत्येक पुष्पिका गद्य वाक्य से कवि के गुरु के नाम का पता चलता है-इति शुभचन्द्रदेव योग पादारविन्दमत्तमधुकरायमानमानसानन्दित सकलगणित तत्वविलासे विनेयजन नुते श्री राज्यादित्य विरचिते व्यवहार गणिते-इत्यादि।

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