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सघ-भेद
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मथुरा और वलभी में वाचनाए कराई। जिसका उद्देश्य आगमों द्वारा वस्त्र और पात्र को पुष्ट करना रहा है । श्वेताम्बरीय वर्तमान आगम तृतीय वाचना का फल है, जो वलभी में वीरात् ६८० (सन् ४५३ ई०) में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में हुई, और उसमे विच्छिन्न होने से अवशिष्ट रहे त्रुटित अत्रुटित, भ्रष्ट परिवर्तित और परिवद्धि तथा स्वमति से कल्पित श्रागमो को अपनी इच्छानुसार पुस्तकारूढ किया गया। ये वाचनाए बौद्ध परम्परा की संगीतियों का अनुकरण करती है ।
पुस्तकारूढ़ किये जान वाल श्रागम साहित्य मे वस्त्र और पात्र रखने के जगह-जगह उल्लेख पाये जाते है । सचल परम्परा की स्थिति का कायम करने के लिए ये सब उल्लेख सहायक एव पुष्टिकारक है । इनमे मध्यम मार्ग की स्थिति को बल मिला है। तीर्थकरो की दीक्षा में भी इन्द्र द्वारा 'देवदृष्य' वस्त्र देने की कल्पना की गई है, और आदिनाथ तथा अन्तिम तीर्थकर का धर्म अचेलक बतलाते हुए भी देव दूव्य वस्त्र को कधे पर लटकाने की कल्पना गढ़ी गई है और शेष २२ तीर्थकरो का धर्म सचेल और अचल बतलाया गया है ।
चाराग सूत्र की टीका मे आचार्य शीलाक ने अपनी ओर से प्रचलता को जिनकल्प का और सचेलता को स्थविर कल्प का आधार बतलाया है। चुनाच श्वेताम्बरीय आचारांग मे यहा तक विकार आ गया है कि वहाँ पिण्ड एपणा साथ पात्र एपणा और वस्त्र एपणा को भी जोड़ा गया है, जिससे यह साफ ध्वनित होता है कि मूल निर्ग्रन्थ आचार मे द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष के कई शताब्दी बाद वस्त्र और पात्र एपणा की कल्पना कर उन्हें एपणा समिति के स्वरूप मे जोड़ दिया है। गणधर इन्द्रभृति रचित आचाराग मे इनका होना सम्भव नही है। मूल आचाराग को रचना इन सब कल्पनाओ से पूर्व की है, जिसमे यथाजातमुद्रा का वर्णन था ।
पार्श्वनाथ की परम्परा को सचेल बतलाने के लिए केशी-गोतम सवाद की कल्पना की गई है और उसे महावीर तीथंकर काल के १६वं वर्ष मे बतलाया है। यहाँ यह विचारने की बात है कि निर्ग्रन्थ तीर्थकर महावीर अपने शासन के विरुद्ध वस्त्रादि की कल्पना को अपने गणधर द्वारा कैसे मान्य कर सकते थे ? फिर उस समय के साधुत्रों को नग्न रहने की क्या श्रावश्यकता थी और उस समय साधन को वस्त्रादि रहित निर्ग्रन्थ दीक्षा क्यों दी जाती रही । इतना ही नहीं किन्तु सवस्त्र मुक्ति, स्त्री मुक्ति प्रर केवलभुक्ति आदि की मान्यता सूचक कथन भी लिखे गये। आर १६वे तीर्थकर मल्लिनाथ को स्त्री तीर्थकर बनलाया गया । 'मल्लि' शब्द के साथ नाथ शब्द का प्रयोग भी किया जाता है, जो उचित प्रतीत नही होता । अस्तु,
अपरिवर्तनीय ही होते है ।
यह बात सुनिश्चित है कि मूल सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन नही होता - नग्नता चूंकि मूलभूत सिद्धांत है, अतः उसमे परिवर्तन सम्भव नहीं ।
इतना ही नही किन्तु विशेषावश्यक के कर्ता जिनदास गणि क्षमाश्रमण ने तो जिनकल्प के उच्छेद की भी घोषणा कर दी। ये सब बात वस्त्रादि की कट्टरता की सूचक है, और मघ-भेद की खाई को चौड़ा करने वाली है ।
१ जैसा कि समय सुन्दरगरण के समाचारी शतक से स्पष्ट है - ' श्रीदर्वाद्ध गणि क्षमाश्रमरणेन श्रीवीरात् श्रशीत्यधिक नव कवर्गे जातेन द्वादशवर्षीयदुभिक्षवशात् बहुतरमाधुव्यापत्यौ च जाताया भविष्यद् भव्यलोकोपकाराय श्रुत भक्त च श्रीमघाग्रहान् मृतावशिष्टताकालीन सर्वसाधून वलभ्यामाकार्य मुन्तखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिता- त्रुटितान् श्रागमालोकान् अनुक्रमेण स्वमत्या सकलय्य पुस्तकारूढान् कृता । ततो मूलतो गणधर भाषितानामपि तत्सकलनानन्तर सर्वेषामपि श्रागमान् कर्ता श्रीदेवधरण क्षमाश्रमण एव जात ।" - समयसुन्दर गरिण रचित सामाचारी शत के
२ आचलक्को धम्मो पुरिमम्स य पच्छिमम्स जिरगम्स ।
मज्झिमगाण जिणाण होइ सचेलो अचेलो य ॥ पचाशक
३ मरणपरमोहि-पुलाए, आहारय खवग उवसमे कप्पे ॥
सजतिय केवलि सिज्झरणा य जबुम्मि बुच्छिण्णा ॥ - विशेषावश्यक भाष्य २५६३
इस घोषणा के सम्बन्ध मे प० बेचरदास जी ने लिखा है - "गाथा मे लिखा है कि जम्बू के समय मे दस बाते विच्छेद हो
गई । इस प्रकार का उल्लेख तो वही कर सकता है जो जम्बूग्वामी के बाद हुआ हो। यह वान मै विचारक पाठकों से पूछता हूँ कि
जम्बू स्वामी के बाद कौन-सा २५वा तीर्थंकर हुआ है जिसका वचन रूप यह उल्लेख उल्लेख हमारे कुलगुरुओ ने पवित्र तीर्थंकरो के नाम पर चढा दिये है।"
माना जाय ? यह एक नही किन्तु ऐसे सम्याबद्ध — जैन सा० वि० थवा थयेली हानि पृ० १०३