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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
दक्षिण को ओर चलते चलते जब वे कलवप्पू या कटवप्र गिरि पर पहुंचे, तब उन्हें अपनी आयु के अन्त समय का आभास हुआ, तब उन्होंने सघ को विशाखाचार्य के नेतृत्व में आगे जाने का निर्देश किया, और वे वहीं रह गए। चन्द्रगुप्त भी उन्हीं के साथ रहा। भद्रबाहु ने समाधि ले ली और उसी पर्वत की गुफा में समभावों से दिवंगत हुए।
ने जिनका दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र लेख में उल्लिखित है. उन्होंने भद्रवाह को वैयावत्य की, और उनके निर्देशानुसार ही सब कार्य सम्पन्न किये। किन्तु जो साधु थावकों के अनुरोधवश उत्तर भारत में ही रह गए थे, उन्हें दुभिक्ष की भीपणपरिस्थितिवश वस्त्रादि को स्वीकार करना पड़ा, और मुनि-प्राचार के विरुद्ध प्रवृत्ति करनी पड़ी। यह शिथिल प्रवत्ति ही आगे जाकर संघभेद में सहायक होती हई श्वेताम्बर सघ की उत्पत्ति का कारण बनी।
जब बारह वर्ष का दुभिक्ष समाप्त हुआ और लोक में सुभिक्ष हो गया, तब जो सघ दक्षिण की ओर गया था, वह विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथ से मध्यदेश में लौटकर पाया। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाह उस समय नेपाल की तराई में थे, और वह १२ वर्ष की तपस्या विशेष में निरत थे । महाप्राण नामक ध्यान में सलग्न थे। साध सघ ने उन्हें पटना बुलाया, किन्तु वे नही आये, जिससे उन्हें संघ बाह्य करने को धमकी दी गई और किसी तरह उन्हें पढ़ाने के लिये राजी कर लिया गया । स्थूलभद्र ने उन्हीं से पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया।
यदि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इस कथन को सत्य मान लिया जाय तो भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय को अपनो परम्परा स्थूलभद्र से माननी होगी। दूसरे भद्रबाहु का पटना वाचना में सम्मिलित न होना, ये दोनों बातें उस समय जैन सघ में किसी बड़े भारी विस्फोट की ओर सकत करती है। और भद्रबाह के वाचना में शामिल न होने से वह समस्त जैन सघ को न होकर एकान्तिक कही जायगी। वह प्राचार-विचार शैथिल्य वाले उन कुछ साधनों की होगी। अत: उसे अखिल जैन सघ का प्रतिनिधित्व प्राप्त नही हो सकता। यहाँ यह भी विचारणीय है कि जब भद्रबाह के काल में प्रथम वाचना पटना में हुई, तब उसी समय श्रृत को पुस्तकारूढ़ कर सरक्षित क्यों नहीं किया गया ? घटनाऋम से ज्ञात होता है कि उस समय आचार-विचार गंथिल्य वाले सघ के भीतर बड़ा मत-भेद रहा होगा। एक दल कहता होगा कि संघ-भेद की स्थिति में अग साहित्य में परिवर्तन इप्ट नही है। यदि उस समय श्वेताम्बर अग साहित्य संकलित कर पुस्तकारूढ़ किया जाता तो सभव है उसका वर्तमान रूप कुछ और ही होता।
दक्षिण से जब सघ लौट कर आया, तब उन्होंने यहाँ रह जाने वाले साधुनों के शिथिलाचार को देख कर बहुत दुःख व्यक्त किया, उन्हें समझाया और कहा कि आप लोगों को दुर्भिक्ष की परिस्थितिवश जा विपरीत पाचरण करना पड़ा, अव उसका परित्याग कर दीजिये और प्रायश्चित्त लेकर वीर शासन के प्राचार का यथार्थ रूप में पालन कीजिये, जिमने जैन श्रमणों की महत्ता बरावर बनी रहे। किन्तु प्राचार और विचार शैथिल्य वाले उन साधनों ने इसे स्वीकार नही किया; क्योंकि मध्यम मार्ग में जो मुख-सुविधा उन्हें १२ वर्ष तक दुर्भिक्ष के समय मिली, वह उन्हें कठोर मार्ग का आचरण करने मे कैसे मिल सकती थी। दूसरे उस समय देश में बौद्धों के मध्यम मार्ग का प्रचार एवं प्रसार हो रहा था-वे वस्त्र-पात्रादि के साथ बौद्ध धर्म का अनुमरण कर रहे थे। उसका प्रभाव भी उन पर पड़ा होगा ऐसा लगता है। प्राचार और वैचारिक शिथिलता ने उन्हें मध्यम मार्ग में रहने के लिए वाध्य किया। यदि उन्हें वस्त्र-पात्रादि रखने का कदाग्रह न होता, तो वे प्रायश्चित्त लेकर अपने पूर्ववर्ती मुनि धर्म पर आरूढ़ हो जाते । पर गैथिल्य प्रवत्ति के संयोजक स्थलभद्र जैसे साध उस मार्ग को कैसे स्वीकार कर सकते थे? ये दोनों ही साधन संघ-भेद-परम्परा के जनक है। प्राचार शैथिल्य ने साधुओं को वस्त्र और पात्र आदि रखने के लिये विवश किया और विचार शैथिल्य ने अपने अनुकल सैद्धान्तिक विचारों में क्रान्ति लाने में सहयोग दिया। वे उसे पुष्ट करने के लिए ठोस आधार ढ ढ़ने का प्रयत्न करने लगे, क्योंकि शिथिलाचार को पुष्ट करने के लिए उन्हें उसकी महती प्रावश्यकता थी। इसीलिए उन्होंने खूब सोच-विचार के साथ बौद्धों के अनुसरण पर पाटलिपुत्र (पटना)
१. देखो, परिशिष्ट पर्व सर्ग लोक ७२ से ११० १०८६
२. सचेल दल के भीतर तीव्र मदभेद की बात प्रज्ञाचक्ष पं० मुखलाल जी भी स्वीकार करते हैं। मथुरा के बाद वलभी में पुनः श्रुत संस्कार हुआ, जिसमें स्थविर या सचेल दल का रहा महा मतभेद भी नाम शेष हो गया ।
-तत्त्वार्थ सूत्र प्रस्तावना पृ०३०