________________
सघभेद
प्रस्तुत विशाखाचार्य श्राचारांगादि ग्यारह अंगों के तथा उत्पाद पूर्व आदि दश पूर्वो के ज्ञाता और प्रत्याख्यान पूर्व प्राणवाय, त्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वो के एकदेश धारक हुए । इन्ही विशाखाचार्य के प्रदेश व निर्देश मे बारह हजार मुनियों ने दक्षिण देश में वीर शासन का प्रचार प्रसार करते में विहार किया और अपनी साधुचर्या का निर्दोष रूप से अनुष्ठान किया ।
हुए पांड्य देशों विशाखाचार्य, प्रोप्टिल्ल, क्षत्रिय, जय मेन, नाग सेन, सिद्धार्थ, धृतिमेन, विजय, बुद्धिल्ल, गगदेव और सुधर्म (धर्मसेन) ये ग्यारह आचार्य दशपूर्व के धारी हुए । परम्परा से प्राप्त इन सबका काल १८३ वर्ष है । धर्मसेन के स्वर्ग वासी होने पर पूर्वो का विच्छेद हो गया। किन्तु इतनी विशेषता है कि नक्षत्र, जयपाल, पाण्ड, ध्रुवसेन और कंस ये पाच आचार्य ग्यारह अग और चौदह पूर्वो के एकदेशधारक हुए। इनका एकत्र परिमाण २२० वर्ष है । मेरी राय में यह काल अधिक जान पड़ता है। एकादश अगधारी कमाचार्य के दिवगत हो जाने पर भरतक्षेत्र का कोई भी आचार्यं ग्यारह अगधारी नही रहा । किन्तु उस काल में पुरुष परम्परा क्रम से सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारी और शेप ग्रेग पूर्वो के एकदेश धारक हुए | "
संघ-भेद
भगवान महावीर के संघ की अविच्छिन्न परम्परा भद्रबाहु श्रुतकेवली के समय तक रही। इसमें किसी को भी विवाद नही है । किन्तु दिगम्बर श्वेताम्बर पट्टावलियाँ जम्बू स्वामी के समय से भिन्न भिन्न मिलती हैं । यद्यपि faraर सम्प्रदाय में श्रुत परम्परा ६८३ वर्ष तक अविच्छिन्न धारा में प्रवाहित रही है । अस्तु
श्रुत केवली भद्रबाहु अपने जीवन के अन्तिम समय में जब वे समघ उज्जैनी में पधारे और सिप्रानदी के किनारे उपवन में ठहरे, उस समय उन्हें वहाँ वर्षादि के न होने से द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के पडने का निश्चय हुआ। तब भद्रबाहु के निर्देशानुसार सघ दक्षिण के चोल पाण्ड्यादि देशों की ओर गया । चन्द्रगुप्त ने भी १६ स्वप्न देवे, जिनका फल उन्होंने भद्रबाहु से पूछा, उन स्वप्नों का फल भो शुभ नही था । क्र एव चन्द्रगुप्त मौर्य भद्रवाहु से दीक्षा लेकर उन्ही के साथ दक्षिण की ओर विहार कर गए। इस दुर्भिक्ष का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा भी करती है और साधु सघ के समुद्र के समीप जाकर बिखर जाने की बात भी स्वीकृत करती है । भद्रबाहु सघ के साथ
१
५१
२
३.
४.
ग्रा
विमाहारियों वाले प्रायारादीण मेक्कारसहमगागमुपयपूव्वाण दमन्ह पुव्वाण पच्चकवारण पाणवाय किरिया विसाल लो विन्दुसार पृथ्वारा मंगदेमाण च धारी जादा ( जय धवला पु० १५०८५ )
पढमी सुभगामी जमभट्टो तह य हादि जसवाह | तुरिमोय लोहगामो दे ग्रावार अगधग ॥ मेमेककरमगाण चोवारणमेदगधरा । एक्कमय अट्ठारसवासजूद तारण परिमाग ।। ते अदीदेसु तदा आचारधरा ग होति भरहम्मि ।
गोदमणिपदी वागाण छम्मदारिग तेमीदी ॥ - निलो० ४ गाथा १४६० मे १४८२ धम्मनणेभयवनं सग्ग गदं भारहवामे दमण्ड पुव्वाण बोच्छेदो जादो। गवरि गाक्वत्ताइरियो जमपाला पाड़ बसेलो कमाइयो चेदि पचजरगी जहाकमेरा एक्वारमगधारिणो चोदमण्ह पुण्वारणमे गदेमधारिणां जादा । देसि वालो वीमुत्तर वि मदवासमेता २२० । ज घ० पु० १ ० ८३
एक्कारसगधारए कमाइरिए सग्ग गदे एत्थ भरवले ते गात्थि कोइवि एक्कारमगधारय ।
देखो वही पृ० ८६
जयध० पु० १ पृ० ८६