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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
__ भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त वही रह गए। चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का दीक्षा नाम 'प्रभाचन्द्र' था, वे भद्रबाह के साथ कटवा पर ठहर गए, और उन्होंने वही समाधिमरण किया। भद्रबाह की समाधि का भगवती आराधना की निम्न गाथा में उल्लेख है
प्रोमोदरिये घोराए भहबाहय संकिलिट्रमदी।
घोराए तिगिच्छाए पडिवण्णो उत्तमं ठाणं ।। १५४४ इस गाथा मे बतलाया गया है कि भद्रबाहु ने अवमोदर्य द्वारा न्यून भोजन की घोर वेदना सहकर उत्तमार्थ की प्राप्ति की । चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की खूब सेवा की । भद्रबाहु के दिवगत होने के बाद श्रुतकेवली का प्रभाव हो गया', क्योंकि वे अन्तिम श्रुतकेबली थे।
___ दिगम्बर परम्पग में भद्रबाहु के जन्मादि का परिचय हरिषेण कथाकोष, श्रीचन्द्र कथाकोष और भद्रबाहु चरित प्रादि में मिलता है; और भद्रबाहु के बाद उनकी शिष्य परम्परा अग-पूर्वादि के पाठियों के साथ चलती है, जिसका परिचय आगे दिया जायगा।
श्वेताम्बर परम्परा में कल्पमूत्र, आवश्यकसूत्र, नन्दिसूत्र, ऋषिमंडलसूत्र और हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में भद्रबाहु की जानकारी मिलती है । कल्पसूत्र की स्थविरावली में उनके चार शिष्यों का उल्लेख मिलता है। पर वे चारों ही स्वर्गवासी हो गए। अतएव भद्रबाहु की शिप्य परम्परा आगे न बढ़ सकी। किन्तु उक्त परम्परा भद्रबाह के गुरुभाई सभूति विजय के शिष्य स्थूलभद्र से आगे बढ़ी। वहाँ स्थलभद्र को अन्तिम श्रतकेवली माना गया है । महावीर के निर्वाण से १७०वें वर्ष में भद्रबाहु का स्वर्गवास हुआ है और स्थूलभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं० १५७ से २५७ तक अर्थात् ईस्वी पूर्व २७० में या उसके कुछ पूर्व हुआ।
दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु का पट्टकाल २६ वर्ष माना जाता है । जबकि श्वेताम्बर परम्परा में पट्टकाल १४ वर्ष बतलाया है। तथा व्यवहार मूत्र, छेदसूत्रादि ग्रन्थ भद्रबाहु श्रुतकेवली द्वारा रचित कहे जाते है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर नि० सवत् के १६२वे वर्ष अर्थात ३६५ ई० पूर्व माना जाता है। दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु थुनकेवली द्वारा रचित साहित्य नही मिलता। इसमें पाठ वर्ष का अन्तर विचारणीय है।
वीर निर्वाण के बाद की श्रत परम्परा तिलोयपण्णत्ती में भगवान महावीर के बाद के इतिहास की बहुत सामग्री मिलती है, उसमें से यहाँ श्रुत परंपरा दी जा रही है।
जिस दिन भगवान महावीर ने मुक्ति पद प्राप्त किया, उसी दिन गौतम गणधर को परमज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त हया । इन्द्रभूति के सिद्ध होने पर मुधर्म स्वामी केवली हुए। उनके कृत कर्मों का नाश कर चुकने पर जम्बू स्वामी केवली हए। उनके बाद कोई अनुबद्ध केवली नही हुआ। इन तीनों का धर्म प्रवर्तनकाल वासठ वर्ष है।
केवलज्ञानियों में अन्तिम श्रीधर हए, जो कुण्डलगिरि से मुक्त हए और चारण ऋषियों में अन्तिम सुपावचन्द्र हुए। प्रज्ञा श्रमणों में अन्तिम वइर जस या वज्रयश, और अवधिज्ञानियों में अन्तिम श्रुत, विनय एवं सुशीलादि से सम्पन्न श्री नामक ऋषि हुए । मुकुटधर राजाओं में अन्तिम चन्द्रगुप्त ने जिन दीक्षा धारण की । इसके बाद मुकुटधरों में किसी ने प्रव्रज्या या दीक्षा धारण नहीं की।
नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पांच श्रनकेवली द्वादश अंगों के धारण करनेवाले हुए। इनका एकत्र काल सौ वर्ष है। पंचम काल में इनके बाद में कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ।
भद्रवाहु श्रुतकेवली के जीवन के अन्तिम समय के निर्देश से विशाखाचार्य सघस्थ साधुओं को दक्षिणापथ की ओर ले गये । और भद्रबाह ने स्वयं भी नव दीक्षित चन्द्रगुप्त मुनि के साथ कटवप्र गिरि पर समाधि धारण की।
-जयध० पु० १ पृ० ८५
१. तदो भद्रबाहु मग्गगते सयल मुदणाणम्स वोच्छेदो जादो। २. मर्वपूर्वधरोऽथासीत्स्थूलभद्रो महामुनिः ।
न्यवेशि चाचार्यपदे श्रीमता भद्रबाहुना ।।१११॥
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६, पृ०६०