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अन्तिम केवलो जम्बूस्वामी होगया। वहां जम्बूकुमार और उनकी स्त्रियों की वार्ता हो रही थी। विद्युतचोर बड़ी देर से उनके आख्यानों को सुन रहा था, उसे उसमें रस आने से और जागृति रहने से वह चोरी तो नहीं कर सका, पर वह उनकी बातों में तन्मय हो गया। विद्युतचोर ने भी अनेक दृष्टान्तों और कथानकों द्वारा कुमार को समझाने का यत्न किया, पर विद्युतचोर की वकालत भी उन्हें विषयपाश में न फैमा सको। उल्टा जम्बकुमार का प्रभाव विद्यतचोर और उसके साथियों पर पडा। अतः विद्यतचोर भी अपने साथियों के साथ चोर कर्म का परित्याग कर दीक्षा लेने के लिये तत्पर हो गया। जम्बू कुमार तो दीक्षा लेने के लिये पहले से ही उत्सुक था। जम्बूकुमार की जिन-दीक्षा
जम्बूकुमार ने अपने विवाह की इस रात्रि में अपनी उन चार पत्नियों को बुद्धिवल से जीत लिया। उनकी शृंगारपरक हाव-भाव चेप्टानों, कथानकों, उपकथानकों आदि का जम्ब कुमार पर कोई प्रभाव अंकित नहीं हमा, उन्होंने राग भरी दृष्टि से उनकी ओर झांका तक भी नहीं। उनकी वैगग्य भरी सौम्य दृष्टि का प्रभाव उन पर पड़ा। विद्य तचोर और उसके साथी सब सोचते कि देखो, कुमार पर देवांगनाओं के सदृश अत्यन्त सुन्दर इन नव युवतियों का और धन वैभव का कोई प्रभाव नही है, ऐसी विभूति को छोड़कर यह दीक्षा ले रहा है। हम लोग तो जिदगी भर पाप कर्म करते रहे, और उसी के लिये यहाँ आये थे; किन्तु कुमार का जिन-दीक्षा लेने का दढ़ निश्चय देखकर हमारा विचार बदल गया और हम सब भी दीक्षा लेकर प्रात्म-साधना करेंगे । हमारे इस निश्चय को अब कोई टालने के लिये समर्थ नहीं है। इस प्रकार के विचार विनिमय में ही सब रात्रि चली गयी, और प्रातः काल हो गया।
सेठ अर्हदास ने प्रातःकाल राजभवन में जाकर सम्राट से निवेदन किया कि जम्बकुमार की चारों नवोढा पत्नियां भी उसे गहस्थ के बंधन में न बाँध सकी और वे दीक्षा लेने वन में जा रहे हैं। सम्राट ने कहा-अच्छा उनको जलस के रूप में सूधर्म स्वामी के पास ले चलने की व्यवस्था की जाय ।
जलस में दन्दभि बाजे बज रहे थे. हाथी, घोडे, ऊंट, और पैदल जनता सभी उसमें शामिल थे। बीच में एक सजी हुई पालकी में ज़म्बू कुमार बैठे हुए थे। उनके शरीर पर बहुमूल्य वस्त्राभूपण थे। उनके सिर पर मुकुट बधा हा था, जिसे सम्राट बिम्बसार ने बांधा था। पालकी को नगर के सम्भ्रांत नागरिक उठाए हुए थे। जनता उत्साह के साथ भगवान महावीर की जय, मुवधर्म स्वामी की जय और जम्बस्वामी की जय बोल रही थी।
शः नगर के सभी प्रधान मार्गो से घमता हा आगे बढता जा रहा था। मार्ग में सभी गवाक्ष और छते नर-नारियों से भर गई। सब ओर से उनके ऊपर पुष्प बरसाये जा रहे थे। जिस समय जुलूस अर्हदास सेठ के मकान की ओर प्राया, तब जम्बूकुमार की माता जिनमती मोहवश दौड़ती हुई पालकी के पास आई । वह मुख से हा पुत्र ! हा पुत्र ! कहकर एकदम मूच्छित हो गई । शीतोपचार से जब वह होश में आई तो आंसू बहाती हुई गद्गद् हो कहने लगी
हे पुत्र ! एक बार तू मुझ प्रभागिनी माता की ओर तो देख। यह कहकर वह पुनः मूच्छित हो गई। अपनी सास को मृच्छित हुआ देख जम्बूकुमार की चारों बहुएँ भी अत्यन्त शोकसन्तप्त होकर रुदन करती हुई बोलीं
हे नाथ ! हे कामदेव ! हम सबको अनाथ बनाकर आप कहाँ जा रहे हैं ? जिस तरह चन्द्रमा के बिना रात्रि की शोभा नहीं, कमल के बिना सरोवर की शोभा नहीं, उसी तरह आपके बिना हमारा जीवन भी निरर्थक है। हे कृपानाथ ! आप प्रसन्न हों और थोड़े समय गृहस्थ अवस्था में रहकर बाद में उसका परित्याग कर दीक्षा ले लें। जम्बकूमार की पत्नियाँ इस प्रकार कह ही रहीं थी कि चन्दनादि के उपचार से माता जिनमती को दबारा होश आ गया। वह होश में आकर रो-रोकर जम्बूकुमार से कहने लगी
हे पूत्र ! कहाँ तो तेरा केले के पत्ते के समान कोमल शरीर और कहाँ वह असिधारा के समान कठोर जिन दीक्षा! तपश्चरण कितना कठिन है। नग्न शरीर, डाँस-मच्छर, झंझावात, वर्षा, ठण्ड, गर्मी, आदि की अनेक असह्य बाधायें कैसे सहन करेगा? हे बालक ! तू इस ऊबड़-खाबड़ कठोर भूमि में कैसे शयन करेगा और भुजाओं को