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जैन इतिहास-एक झलक / 41
अहिसा, अनेकात, समता और कर्मवाद रूपधर्म चतुष्टय ही भगवान महावीर के उपदेशों का सार है। सैद्धातिक तथा व्यवहारिक दोनों दृष्टियों से अहिसा का जितना व्यापक रूप भगवान महावीर ने प्रदान किया, सभवतया उतना किसी अन्य धर्मोपदेष्टा ने नहीं दिया । जैन धर्म को उसके अतिम विकसित रूप देने का श्रेय अतिम तीर्थकर महावीर को ही है।
इस प्रकार ऋषभदेव से महावीर तक जैन धर्म की इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म रहा है और उसने व्या समाज,राष्ट्र और विश्व की एकता एव विकास की दृष्टि से जो सिद्धांत प्रतिपादित किया है वे आज भी उतने ही प्रासगिक और उपयोगी हैं जितने उस समय थे।
महावीर के बाद जैन धर्म भगवान महावीर के निर्वाणोपरात उनके प्रधान गणधर गौतम जैन सघ के नायक बने । महावीर का शिष्यत्व ग्रहण करने के पर्व वह वेद-वेदागों के ज्ञाता प्रकाड ब्राह्मण पडित थे। भगवान महावीर के निर्वाण के दिन ही इन्हे शाम को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। 12 वर्ष तक सघ इनके नेतृत्व में रहा । तत्पश्चात् महावीर सवत् 12 (ई पू 515) मे निर्वाण को प्राप्त हुए। उनके बाद सुधर्माचार्य को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। 11 वर्षों तक सघ इनके नेतृत्व में रहा। उनके निर्वाण के उपरात जब स्वामी सघ के नायक बने। ये चपा नगरी के एक कोटयाधीश श्रेष्ठि के पत्र थे और महावीर स्वामी के प्रभाव से शिष्य हो गए थे। इन्होने 39 वर्ष तक धर्म प्रवचन दिया और अत मे मथुरा चौरासी नामक स्थान पर उन्होने निर्वाण लाभ प्राप्त किया। उनके पश्चात् क्रमश विष्णु कुमार, नन्दि पुत्र, अपराजित,गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए, जिनके नेतृत्व मे सघ चला। इन पाँचो का कालयोग 100 वर्ष होता है। इन्हे सपूर्ण श्रुत का ज्ञान था। इनमे अतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु का जैन धर्म के इतिहास मे महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके पूर्व समस्त जैन सघ अखड और अभिभक्त था कितु इनकी मृत्यु के उपरात साधुओ मे मतभेद, सघभेद, गणभेद आदि प्रारभ हो गए। दिगबर और श्वेताबर रूप विभाजन का बीजारोपण भी यही पर हुआ था।
श्वेतांबर मत का प्रार्दुभाव उपर्युक्त मतभेदादिक का सबसे बड़ा कारण मध्यदेश को ग्रसने वाला 12 वर्षीय महादुर्भिक्ष था। आचार्य भद्रबाहु निमित्त ज्ञानी थे। अत उन्होने भावी संकट को जानकर संपूर्ण सघ को दक्षिण भारत की ओर विहार करने का आदेश दिया। उनके नेतृत्व में श्रमण संघ का बहुभाग दक्षिण भारत को प्रस्थान कर गया । मौर्य सम्राट चद्रगुप्त भी उनसे दीक्षा धारण कर दक्षिण की ओर चले गए थे। अपना अत समय निकट जानकर आचार्य भद्रबाहु कर्नाटक के श्रवण बेलगोला के कटवप्र नामक पहाड़ी पर रुक गये तथा समस्त संघ को चोल, पांडय आदि प्रदेशों की ओर जाने का अदेश दिया। वहां उन्होंने समाधिमरण पूर्वक देह त्याग किया। नवदीक्षित सम्राट चंद्रगुप्त भी उनके साथ थे। मुनि चंद्रगुप्त ने भी वहां तपस्या की, जिसके कारण उस पहाड़ी का नाम चंद्रगिरि पड़ गया। इस आशय का छठी शताब्दी का एक