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64 / जैन धर्म और दर्शन
की दोनों ही पर्यायें शुद्ध होती हैं तथा संसारी जीव और स्थूल स्कंधों की दोनों ही पर्यायें अशुद्ध । यही पर्यायों का संक्षिप्त परिचय है ।
विश्व मानवता और श्रमण संस्कृति
श्रमण संस्कृति कितनी शीलमयी, कितनी करुणामयी, कितनी ममतामयी, त्यागमयी, मानवतामयी, कोमलता, विनय और अनुरागमयी है कि मैं उसके हृदय में उसके अंतरतम में जितनी गहराई तक प्रवेश करता हूं पूर्वाप्रेक्षा अधिक से अधिक सुंदर, अधिक से अधिक मंगलमय, शांतिमय और मुक्तिमय पाता और वह भी मेरे व्यक्तित्व कृतित्व एवं अस्तित्व के रोम-रोम में गहराइयों तक प्रविष्ट होती हुई मुझे निरंतर, हर पल, हर क्षण, प्रभावित करती हुई मानव के महान चरणों तक पहुंचा देती है। और मैं वहां मंत्र-मुग्ध सा अपने आपको विश्व-मानवता के चरण-कमलों में पूर्ण नत, पूर्ण समर्पित तथा उनकी वंदना उनकी अभ्यर्थना करता हुआ पाता हूं—मेरे ऊपर इस प्रकार का प्रभाव डालने वाली केवल यह श्रमण संस्कृति ही है—जो मेरा सर्वोपरि आराध्य है और जिसका मैं अनुगामी, उपासक एवं आराधक हूं। मैं उसके सुंदर-सुंदर कोमल और लोकपावन तीरों से पूरी तरह कायल हूं। फिर भी मुझे पीड़ा की नहीं आनंद की अनुभूति होती है ।
मैंने चिंतन, मनन एवं अनुशीलन के पश्चात् यह पाया है कि विश्व-मानवता के जितनी समीप श्रमण संस्कृति है उतनी दूसरी नहीं । अखिल मानव का जो कल्याण श्रमण संस्कृति के सरस एवं पुनीत सरिता में अवगाहन करने से हो सकता है। वैसा कहीं ओर जाकर मज्जन करने से नहीं ।
विश्व मानवता और श्रमण संस्कृति, श्री श्रीकृष्ण पाठक, पृ. 64 आस्था और चिंतन