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128 / जैन धर्म और दर्शन
वर्ष बीतने पर) यानि 72 वर्ष की अवस्था में । उस काल में भी न हो तो शेष नौ वर्ष में से छह वर्ष बीतने पर, अर्थात् 78 वर्ष की अवस्था होने पर । उसमें भी न हो तो शेष तीन में से दो वर्ष बीतने पर, अर्थात् 80 वर्ष की अवस्था में। और यदि उसमें भी न हो तो शेष एक वर्ष में से 8 माह बीतने पर अर्थात् 80 वर्ष 8 माह की अवस्था में । यदि उसमें भी न बंधे तो शेष चार माह में से 80 दिन बीत जाने के बाद अर्थात 80 वर्ष 10 माह और 20 दिन की अवस्था में। यदि उसमें भी न बंधे,तो शेष 40 दिन के त्रिभाग, 26 दिन 16 घंटे बीत जाने के उपरांत अर्थात् 80 वर्ष, 11 माह,16 दिन तथा 16 घंटे की अवस्था में । यदि इसमें भी न बंधे,तो शेष अवधि में से 8 दिन,21 घंटे तथा 20 मिनिट बीत जाने पर अर्थात् 80 वर्ष,11 माह, 25 दिन, 13 घंटे, 20 मिनिट की आयु में आयु कर्म का बंध हो जाता है यदि उसमें भी न हो पाये तो मरण के अंतर्मुहूर्त पूर्व तो आयु बंध कर ही लेता है।
आय बंध का यह नियम मनष्य और तिर्यचों के लिए है। देव नारकी तथा भोग भमि के जीव अपने जीवन के 6 माह शेष रहने पर आयु बंध के योग्य होते हैं। इस छह माह में उनके भी आठ अपकर्ष होते हैं।'
आयु बंध के कारण हिंसा आदि कार्यों में निरंतर प्रवृत्ति, दूसरे के धन का हरण, इंद्रिय विषयों में अत्यंत आसक्ति तथा मरण के समय कर परिणामों में 'नरकाय' का बंध होता है।
धर्मोपदेश में मिथ्या बातों, को मिलाकर उसका प्रचार करना, शील रहित जीवन बिताना, अति संधान प्रियता अर्थात् विश्वासघात. वंचना और छल-कपट करना आदि 'तिर्यच' आयु के बंध के कारण हैं।
स्वभाव से विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, अल्पकषाय का होना, तथा मरण के समय संक्लेश रूप परिणति का नहीं होना आदि 'मनुष्यायु' के बंध के कारण हैं।
___ सयम, तप धारण करने से, व्रताचरण से, मंद कषाय करने से, श्रेष्ठ धर्म को सुनने से, दान देने से, धर्मायतनों की सेवा तथा रक्षा करने से तथा सम्यक् दृष्टि होने से 'देवायु' का बंध होता है।
नाम-कर्म 'नाना मिनोतीति नामः' जो जीव के चित्र-विचित्र रूप बनाता है वह 'नाम-कर्म' है। इसकी तुलना चित्रकार से की है। जिस प्रकार चित्रकार अपनी तलिका और विविध रंगों
1 पु 10234 2 सर्वा सि6/15/333 3 वही, 6/16/339 4 सर्वा सि.6/17/334 5 तसा 42-43 6 (अ)धपु6/13 (ब)ध पु 13/209 7 चित्रकार पुरुष वत्नाना रूप चरणता । वद्र स टी गा 33