Book Title: Jain Dharm aur Darshan
Author(s): Pramansagar
Publisher: Shiksha Bharti

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Page 283
________________ अनेकांत और स्यादवाद / 273 स्याद्वक्तव्य एव घट:-कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है। स्याद् अस्ति अवक्तव्य एव घटः कथंचिद् घट है ही और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है। स्यानास्ति अक्तव्य एव घटः कथंचिद् घट नहीं ही है और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है। स्याद्अस्ति नास्ति अवक्तव्य एव घट:-कथंचिद् घट है ही, कथंचिद् घट नहीं ही है और कथंचिद घट अवक्तव्य ही है। स्याद्अस्ति एव घट:-कथंचिद् घट है ही। इस वाक्य में 'घट' विशेष्य और अस्ति विशेषण है । एवकार विशेषण से युक्त होकर घट के अस्तित्व धर्म का अवधारण करता है। यदि इस वाक्य में स्यात्' का प्रयोग नहीं होता तो अस्तित्व एकांतवाद' का प्रसंग आ जाता, जो इष्ट नहीं है, क्योंकि घट में केवल अस्तित्व धर्म ही नहीं है, इसके अतिरिक्त अन्य धर्म भी उसमें हैं। 'स्यात्' शब्द का प्रयोग इस आपत्ति को निरस्त कर देता है। 'एवकार के द्वारा सीमित अर्थ को वह व्यापक बना देता है। विवक्षित धर्म का असंदिग्ध प्रतिपादन और अविवक्षित अनेक धर्मों का संग्रहण इन दोनों की निष्पत्ति के लिए 'स्यातकार और 'एवकार' का समन्वित प्रयोग किया जाता है। सप्तभंगी के प्रथम भंग में विधि की और दूसरे में निषेध की कल्पना है। प्रथम भंग में विधि प्रधान है और दूसरे में निषेध । वस्तु स्वरूप शून्य नहीं है इसलिए विधि की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है और वह सर्वात्मक नहीं है। अतः निषेध की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है। जैसे विधि वस्तु का धर्म है वैसे ही निषेध भी वस्तु का धर्म है। स्व-द्रव्य की अपेक्षा से घट का अस्तित्व है। यह विधि है पर द्रव्य की अपेक्षा से घट का नास्तित्व है। यह निषेध है। इसका अर्थ यह हुआ कि निषेध आपेक्षिक पर्याय है, दूसरे के निमत्त से होने वाला पर्याय है। किंतु वस्तुतः ऐसा नहीं है। निषेध की शक्ति द्रव्य में निहित है । द्रव्य में यदि अस्तित्व धर्म हो और नास्तित्व धर्म न हो तो वह अपने द्रव्यत्व को बनाए नहीं रख सकता। निषेध 'पर' की अपेक्षा से व्यवह्वत होता है इसलिए उसे आपेक्षिक या परनिमित्तक पर्याय कहते हैं। वह वस्तु के सुरक्षा कवच का काम करता है.एक के अस्तित्व में दूसरे को मिश्रित नहीं होने देता । 'स्व द्रव्य की अपेक्षा से घट है' और 'पर द्रव्य की अपेक्षा से घट नहीं है' ये दोनों विकल्प इस सत्यता को प्रकट करते हैं कि घट सापेक्ष है । वह सापेक्ष है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस क्षण में उसका अस्तित्व है, उस क्षण में उसका नास्तित्व नहीं है । अस्तित्व और नास्तित्व विधि और निषेध) दोनों युगपत हैं,किंतु एक क्षण में एक साथ दोनों का प्रतिपादन कर सकें,ऐसा कोई शब्द नहीं है । इसलिए युगपत् दोनों धर्मों का बोध कराने के लिए अवक्तव्य भंग का प्रयोग होता है। इसका तात्पर्य है कि दोनों धर्म एक साथ हैं, किंतु उनका कथन नहीं किया जा सकता। उक्त विवेचन का सार यह है कि स्याद्वाद के अस्ति,नास्ति और अवक्तव्य आदि भंग घट वस्तु के द्रव्य क्षेत्र काल तथा भाव पर निर्भर करते है। घट जिस द्रव्य से निर्मित है जिस क्षेत्र काल और भाव में हैं उस द्रव्य क्षेत्र.काल और भाव की दृष्टि से उसका अस्तित्व है। किंतु अन्य द्रव्य,अन्य क्षेत्र, अन्य काल और अन्य भाव की अपेक्षा में उसका नास्तित्व है। इस प्रकार घट में

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