Book Title: Jain Dharm aur Darshan
Author(s): Pramansagar
Publisher: Shiksha Bharti

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Page 282
________________ 272 / जैन धर्म और दर्शन किसी अपेक्षा से नहीं ही है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है। भंग सात ही क्यों? उक्त सात भंगों में प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ भंग ही मूल भंग हैं। शेष चार भंगों में तीसरा, पांचवां और छठा भंग द्विसंयोगी है तथा सातवां भंग त्रिसंयोगी है। गणित के नियमानुसार भी ‘अस्ति', 'नास्ति' और अवक्तव्य इन तीन भंगों से चार संयुक्त भंग बनकर सप्तभंगी दृष्टि का उदय होता है। नमक, मिर्च और खटाई इन तीनों स्वादों के संयोग से चार और स्वाद उत्पन्न होंगे। नमक, मिर्च, खटाई, नमक-मिर्च, नमकखटाई, मिर्च खटाई तथा नमक-मिर्च और खटाई । इस प्रकार सात स्वाद होंगे। इसलिए कहा गया है कि प्रत्येक धर्म युगल में सप्त ही भंग बनते हैं, हीनाधिक नहीं। ये सातों भंग वक्ता के अभिप्रायानुसार बनते हैं । वक्ता की विवक्षा के अनुसार एक वस्तु है भी कही जा सकती है और नहीं भी। दोनों के योग से 'हां ना' एक मिश्रित वचन भंग भी हो सकता है । और इसी कारण उसे अवक्तव्य भी कहा जा सकता है । वह यह भी कह सकता है कि प्रस्तुत वस्तु है भी और फिर भी अवक्तव्य है, नहीं है फिर भी अवक्तव्य है अथवा है भी नहीं भी है फिर भी अवक्तव्य है। इन्हीं सात दृष्टियों के आधार पर सप्तभंगियां बनी हैं। सप्तभंगियों की सार्थकता को हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं। किसी ने पूछा, “आप ज्ञानी हैं ?” इसके उत्तर में इस भाव से कि मैं कुछ न कुछ तो जानता ही हूं। मैं कह सकता हूं कि “मैं स्याद् ज्ञानी हूं।” चूंकि मुझे आगम का ज्ञान है, किंतु गणित, विज्ञानादि अन्य अनेक विषयों का पर्याप्त ज्ञान नहीं है उस अपेक्षा से मैं कहूं कि “मैं स्याद अज्ञानी हूं" तो भी अनुचित नहीं होगा। कितनी ही बातों का ज्ञान है और कितनी ही बातों का ज्ञान नहीं है। अतः मैं यदि कहूं कि “मैं स्याद् ज्ञानी भी हूं और नहीं भी” तो भी असंगत नहीं होगा। अगर इस दुविधा के कारण मैं इतना ही कहूं कि “मैं कह नहीं सकता कि मैं ज्ञानी हूं या नहीं" तो भी मेरा वचन असत्य नहीं होगा। इन्हीं आधारों पर सत्यता के साथ यह भी कह सकता हूं कि "मुझे कुछ ज्ञान है तो, फिर भी कह नहीं सकता कि आप जिस विषय को मुझसे जानना चाहते हैं उस विषय पर प्रकाश डाल सकता हूं या नहीं।" इसी बात को दूसरी तरह से कह सकता हूं कि “मैं ज्ञानी तो नहीं हूं फिर भी संभव है आपकी बात पर कुछ प्रकाश डाल सकू" अथवा इस प्रकार भी कह सकता हूं कि "में कुछ ज्ञानी भी हूं कुछ नहीं भी हूं।" अतः कह नहीं सकता कि प्रकृत विषय का मुझे ज्ञान है या नहीं। ये समस्त वचन प्रणालियां अपनी-अपनी सार्थकता रखती हैं तथा पृथक्-पृथक् रूप में वस्तु-स्थिति के एक अंश को ही प्रकट करती हैं, उसके पूर्ण स्वरूप को नहीं । स्याद्वाद का एक शास्त्रीय उदाहरण है घट,जिसका स्वरूप नियमन जैन दार्शनिक सप्तभंगी के माध्यम से इस प्रकार करते हैं स्याद् अस्ति एव घटः कथंचिद् घट है ही। स्याद् नास्ति एव घटः कथंचिद् घट नहीं ही है। स्याद् अस्ति नास्ति एव घटः कथंचिद् घट है ही,कथंचिद् घट नहीं ही है।

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